« तुम ही कहो कि उससे कोई जा के क्या मिले | “मैं फिर लिखूंगा “ » |
मेरी, सुनो…!
Hindi Poetry |
१
मेरी, खो गयी सी! – सुनो!
विश्वास नहीं करोगी लेकिन सुन तो लो ही.
रोज लड़ता हूँ खुद से तुम्हें पाने के लिये.
कचोट डालता हूँ अंदर तक.
पर एक दो गंदले गढ्ढों के सिवा कुछ नहीं मिलता.
जहाँ रोज रंगों की छटायें बरसती थीं
वहाँ एक बदरंग सा भी फूल नहीं खिलता.
२
मेरी, सबसे अच्छी मेरी! – सुनो!
विश्वास नहीं करोगी लेकिन सुन तो लो ही.
कूट कूट कर भरा हुआ है, मेरे अंदर –
तुम्हारे होने और होते रहने का अभिमान.
चिथड़े होते विश्वास के बीच भी, अक्षुण्ण है
मेरी निगाहों में तुम्हारा स्थान.
कई बार मरती हो तुम मेरे लिये
और कई बार दे जाती हो
मुझ जैसे को अमरत्व का वरदान.
कैसे तुम्हें छोड़ दूँ अकेले?
कैसे रहने दूँ तुम्हें बाँधकर?
कैसे झुठला दूँ अपना प्यार?
किसी के हँसी से डरकर
कैसे छीन लूँ तुम्हारा संसार?
३
मेरी, स्वतंत्र मेरी! – सुनो!
विश्वास नहीं करोगी लेकिन सुन तो लो ही.
मुझे स्वतंत्रता की आदत नहीं
डर लगता है अकेले रहने से.
तुम्हारे बिना विचार भी बावले से हैं
सो डरता हूँ किसी से कुछ कहने से.
ये जो भी है – थोड़ा उटपटांग सा प्रलाप है
थोड़ी बेवकूफ़ी की उष्णता, बेचैनी का ताप है.
मेरी – तुम हो मेरी,
और यही तुम्हारी उम्र का श्राप है.
मेरी, स्वतंत्र मेरी! – सुनो!
yeh teen shabd bahut kuch kehte hain..
Umda Mere Dost
वाह, अति सुन्दर,
विचारों का बहुत सुन्दर अंदाज़ और अपनी बात सुनाने का अंदाज़ भी.
“मेरी सुनो ” पढ़ लेने सुनने के बाद भी अंतर्मन अपने में ये बातें सुनता ही रहा . ….
…बहुत मनभावन
रचना के लिए हार्दिक अभिवादन
विकासभाई आपकी हर एक रचना कुछ कह जाती हैं ..आप बस इस तरह लिखते रहो ये भगवान कृष्ण से हम दुवा मांगते हैं ..जय श्री कृष्ण
very nice imagery. loved the composition.
too good vikash,,keep sharing dost 🙂
बहुत ही सुन्दर रचना…बधाई …