« Music that Moved ..! | मंजिल ….! » |
हर शय बेच रही है नारी.
Hindi Poetry |
सीख न पाए दुनियादारी,
अच्छी खासी उमर गुजारी.
अब भी अंदेशे हैं तारी (अंदेशे-आशंका,तारी-व्याप्त )
जंग है नेको बद की जारी. (नेको बद-अच्छाई और बुराई)
बरसे नहीं बरसनेवाले,
सूख रही सारी फुलवारी.
ज्यों ज्यों बढीं शहर में कारें,
बढ़ी गाँव में क्यों बेकारी.
हुए महा जन सभी महाजन,
ज़हर बेचते बन व्यापारी,
दवा नहीं बस दावे दावे,
और दावे भी कितने भारी.
भोग बेचना हो कि योग अब,
हर शय बेच रही है नारी.
अति सुन्दर ये रचना मार्मिक , मनभावन, अर्थ सरल है फिर भी भारी
सब लोगों को श्राप सा है ये दुर्जनों की हरकतें और लालची होशियारी
kudos
@Vishvnand, thanx for the appreciation Sir.
आखिरी ४ अशार पर वाह वाह…हासिल-ए-शेर को दाद-ए-दिल..
भोग बेचना हो कि योग अब,
हर शय बेच रही है नारी.
@Reetesh Sabr, inayatfarmayi ka shukriya reetesh ji.
बेजोड़ रचना !!!
@Harish Chandra Lohumi, thanks.