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अच्छी मजलिस में आये हम,स्वर गूंगे, श्रोता बहरे हैं.
Hindi Poetry |
फरक़ ही जो न समझे आज तक हक़ और हक़ीक़त में.
तो क्या अचरज अगर रुसवा हुए हैं वो मुहब्बत में.
रज़ा मेरी बताते हैं वो अब अपने गुनाहों में,
न हम इनकार कर पाए, जिन्हें बस थे मुरव्वत में.!१!
ये नखरे, उनके नखरे हैं.
जो न खरे, बिलकुल न खरे हैं.
कैसा मरहम सौंप गए तुम,
अब तक सारे घाव हरे हैं.
अच्छी मजलिस में आये हम
स्वर गूंगे, श्रोता बहरे हैं.
अर्थाभाव अनर्थ गया कर,
बस मुफलिस मुजरिम ठहरे हैं.
हैं केवल बेख़ौफ़ लुटेरे
जन गण मन में भय गहरे हैं.!२!
कैसा मरहम सौंप गए तुम,
अब तक सारे घाव हरे हैं.
bahut badhiya singh saheb.
@vpshukla, dhanyavad mahoday.
@vpshukla, धन्यवाद आप का .
उत्तम कविता, एस.एन.
@U.M.Sahai, शुक्रिया तस्लीम करें.
बहुत सुंदर कविता |
@parminder, तारीफ़ का शुक्रिया तस्लीम करे भाई परमिंदर जी.