“मुखौटा”
इस कलयुग में अब रहते कहाँ इंसान हैं,
इंसानों का मुखौटा पहन यह जिंदा हैवान हैं.
असलियत अपनी छुपाने को पहनते हैं मुखौटा,
जैसे आसमान को ढँकती है काली विषैली घटा.
उजागर हो जाए जब इनका असली चेहरा,
पहनते हैं तब मुखौटे पर मुखौटा.
ऐसे मुखौटे बाजारों मे युँ ही नहीं बिकते,
खुदबखुद इनके चेहरों पर हैं यह आ टिकते.
युग था वह भी रहते थे जब भगवान जमीं पर,
अब तो ढुँढने पर शायद ही मिले इंसान कहीं पर.
बाहरी आवरण है महज बनावट,
मन के भीतर भी है गहरे मैल की आहट.
अपनों को देकर धोखा,पाने को पलभर की खुशी,
अधमरा जमीर उसे क्यों झकझोरता नहीं
ढुँढने चले थे हम भी एक दिन इंसान,
मुखौटा पहन हुआ जो रुबरु, हम न पाए पहचान,
बेवजह जताए जैसे किया हो हमपर कोई एहसान.
क्यों भुल गया है इंसान अपनी इंसानियत?
हर कोई है खोट् से भरा, खोटी है सबकी नियत.
दूषित मन में अब बसती कहाँ है सच्ची श्रद्धा,
खुदा के घर जाकर करता उसी की निंदा,
मुखौटा पहन ईश्वर को भी सदा गुमराह है करता….
राजश्री राजभर…….
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marvelous
after so long, where were u?
neway i loved it
I am in the world only, I dont get time to write, thanx alot rajdeepji.
well-written, very nice indeed!
Thanx alot Rachnaji for ur best comment.
well drafted, well written poem.
Thanx alot Vijayji for ur best comment.
सुन्दर रचना. मनभावन
बधाई
मुखवटों के कारण ही यहाँ वहां हर जगह अनर्थ सा फैला हुआ है और इस माहौल में अपने लिए कुछ अर्थ लाने खुद बिन कोई मुखवटे के आचरण करना ही शायद सही और सफल जीना है …
Thank u so much sir for giving ur great thought n for ur best comment.
कलियुगी इंसान की हैवानियत का जो मंडन |
किया है आपने कहो कौन करेगा खंडन ||
एकदम सही |खूब बधाई ||
sad ,thoughtful poem. sadder still is a young poet has to pen these lines.
good effort.
बहुत समय बाद आप की रचना आयी| बहुत सुन्दर! मुखौटों के इस दोमुहे वक्त में असली चेहरे मुश्किल ही दीखते हैं|
आपकी यह कविता भी ……. एक तरह से समाज को आइना दिखाती सी है…. keep it up.
“युग था वह भी रहते थे जब भगवान जमीं पर,
अब तो ढुँढने पर शायद ही मिले इंसान कहीं पर.”
— बहुत सुन्दर.
very well written raj , good one keep it up,i am feeling very happy that ur back with ur poems
राजश्री जी बहुत बहुत स्नेह /मैंने आपकी रचनाएँ पढ़ी /अच्छी लगीं /आप सफल कवियित्री हों /मेरी शुभ कामनाएं आप के साथ हैं /मैं भी एक साहित्यकार हूँ /२१ साल से राजभर मार्तंड मासिक पत्रिका का संपादन कर रहा हूँ /आप अपनी रचनाएँ प्रकाशनार्थ पत्रिका में भेजना चाहें तो स्वागत है /मेरी पहली पुस्तक सन १९६२ में छपी थी /मैंने ४० ग्रन्थ लिखे हैं / आचार्य