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न जाने किधर जा रहा हूँ मैं?
Hindi Poetry |
न जाने किधर जा रहा हूँ मैं,
ठहरता हूँ,
देखता हूँ पीछे,
लगता है कि अभी
‘यहीं’ से ही तो होकर
गया था|
जिस प्रकार लक्ष्यविहीन
चन्द्र, घूमता रहता है पृथ्वी
के चारों ओर, एक के बाद
एक चक्कर लगाता हुआ..
पर
रह जाता है ‘यहीं’..
हर रात फिर से
आने के लिये…
इसी प्रकार मैं
भी फंसा हुआ हूँ इस
चक्रव्यूह में।
सोचता हूँ, ढूंढ कर कोई लक्ष्य,
गमन करने लगूं
एक सरल रेखा में …
कहीं न कहीं तो पहुचूँगा….
वो भी बेहतर होगा
इस कहीं न जाने से…..||
– ६ अप्रैल, २०००
…………… आज भी उसी लक्ष्य की खोज जारी है॥
– २४ जुलाई २०१०
सुन्दर रचना और मनभावन अंतर्विचार
आजकल सही रस्ते बचे ही नहीं है गोल गोल घूमते घूमते ही अपने goal को ढूँढ़ना पड़ता है 🙂
@Vishvnand,
धन्यवाद, विश्वनन्द जी 🙂
achchhi rachna, parantu upadhyay ji science kahta hai koi bhi rekha seedhi nahin hoti, curvature sabhi me hota hai.
@siddha Nath Singh,
सही कहा आपने सिद्ध नाथ जी… वो रास्ते भी कहा ’सरल’ है… विश्वनन्द जी की ही बात अपनाने वाली है –
“गोल गोल घूमते घूमते ही अपने goal को ढूँढ़ना पड़ता है”
आपका आभार!
सुंदर रचना, उपाध्याय जी, बघाई. कृपया लक्ष्य को जल्दी ही निर्धारित करें और फ़िर उसे हासिल करने के लिए वो ही रास्ता चुने जो आपके लक्ष्य की तरफ जाता हो, फ़िर वो रास्ता गोल हो या सीधा कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
veryy nicely expressed,,and yes,,all d best pankaj 🙂
Well written. Liked it.
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