पहचान!
यूँ हुई मेरी मुझसे पहचान
जिससे थी मैं बरसो अनजान
जब दाव पर लगा मेरा आत्म-सम्मान
आत्मा भोज तले हो गई बेजान
छूटा आँचल और वही पुराना मकान
खुद की खोज करुँगी, यह बात तब ली मैंने मन में ठान
फिरती रही गलिया ना छोड़ी एक भी दुकान
हुई फिर भी नहीं दुविधा आसान
क्या ढुंढू मेरी पहचान?
कौन बतलायेगा यह सयान?
मुरझाई, बिलखती, छूटने को हुये जब मेरे प्राण
याद आये तुम भगवान्
सार्थक हो खोज, कर दो मेरा कल्याण
प्रज्वलित एक ज्योति ने तब बाटा मेरा ध्यान
अच्छे कर्म की पूंजी की तेरी शान
उसी में तो रहते है सियाराम!
निरंतर सद्भावनाओ का संचार
यही तो है मेरी खोज का अर्थपूर्ण आधार!
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bhaav ki abhivyakti ubhar kar aayi hai..sundar kavita!
Sundar rachanaa, manbhaavan aandaaz
bdhaaii
sundar bahut sundar….
aur bhii likkhtaa ..
par..
pata nahii,
word press (hindi) chale to sahii p4poetry kaa.
अच्छी रचना व अभिव्यक्ति, रचना, बधाई.