« इस जग में अगर न मां होती | दोपहरी में जीवन की क्यों काले बादल छाये हैं, » |
साज़िश
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वो चलती है जहां चलता है
पैरों तले उसके आसमां चलता है
रोती है वक़्त रुक जाता है
पैरों तले पड़ा आसमान तब वहीँ टिक जाता है
अदायें दिखाती वो
मटक मटक बलखाती वो
गिर जाती वो मुस्काती वो
आधे कुतरे हुए बिस्कुट को पकड़े
घर भर में ऊधम मचाती वो
वो हंसती है सूरज का धागा उससे जुड़ जाता है
वो गाती है कोयल का राग बेसुरा पड़ जाता है
नाचती है वो तो सृष्टी झूम उठती है
झूमती है वो तो माँ चूम उठती है
उदासी नहीं मालूम उसे
उबासी नहीं मालूम उसे
भूख नहीं पता चालाकी नहीं पता
होशयारी नहीं पता समझदारी नहीं पता
दुनिया के रीति रिवाजों से अनजान
बड़ी हो रही है वो नादान
उसे क्या मालूम ये दुनिया साज़िश में है
उसे भी इंसान बनाने की ..
Nice plot.
fantastic poem, you reminded the famous lines of Nida Fazli-
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे .
nice one 🙂
Liked this beautiful take and the presentation immensely
Kudos.
उसे क्या मालूम ये दुनिया साज़िश में है
उसे भी इंसान बनाने की ..
kya baat hai !!!!! Kudos !!!
thank u everyone 🙂