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स्वतन्त्रता ……………?

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Anthology 2013 Entries, Aug 2010 Contest, Hindi Poetry

स्वतन्त्रता रूप बदल हो गयी स्वछंदता
शालीनता परिवर्तिती हो बनी उच्चश्रिन्ख्लता
दीवारें अदृश्य बनती जा रही हैं जनता के बीच
अदृश्य होते जा रहे हैं मानवता के बीज|

एक धर्म ही तो है जो रह गया है जीवित,
धर्म क्या, अधर्म की भभकती ज्वाला है,
लेकर नाम इश्वर का, दानवता का बोल-बाला है,
हर तरफ लपलपाती आग है, दिमागों पर पडा ताला है|

ज़हर हैं घोल रहे दिलों में, अंग्रेजों को भी है पछाड़ डाला,
मानसिकता वो पहचान लिए थे, विभाजित कर राज किये थे,
गर जात-पात का गुरूर छोड़ देते,
क्या गुलामों सी ज़िंदगी बसर करते?

आज भी, मानवता को प्राथमिकता गर दें,
‘सोने की चिड़िया’ को अतीत से वर्त्तमान में ला दें|
वो जो जनता का खजाना है बाहरी बैंकों में,
भूखों को अन्न, वस्त्रहीनों को चादर पहना दे|
छत मिल जाए कितने बेघरों को, सोते हैं जो रोज तारों की छाँव में,
इलाज मिल जाए लाखों दुखियों को, मरते हैं जो रोज दवा के अभाव में|

क्या पाया इस स्वतन्त्रता से हमनें, गुलाम तो आज भी हम सब हैं,
झूठे उसूलों से जीवन को जकडे, जंजीरों से कैद तो आज भी हम हैं|

पन्त जी की पंक्तियाँ ‘तीस कोटि संतान नग्न-तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र-जन, मूढ़, असभ्य अशिक्षित निर्धन………’
आज ६३ साल बाद भी स्थिर हैं|
हाँ, आबादी का अनुपात बढ़ा है, भ्रष्टाचार घनघोर चढ़ा है,
पर बाक़ी सब तो वहीं खडा है|

भारत माता आज भी है ग्राम वासीनी,
विकास के नाम की है इक पट्टी बंधी,
बस इक मुट्ठी भर को देख सुखी,
भूल जाते हम वास्तविकता भद्दी–
कि, नग्न हैं हम आज भी,
आधीन हैं हम आज भी,
उम्मीद की चादर ओढ़े,
अचेत हैं हम आज भी |

है कोई जो खोले सुप्त चक्षुओं को?
जो अमृत से धो दे इस उन्माद को?
तोड़ो यह जंजीरें, भगा दो दूर यह विपदा,
गर्व से फिर शीश उठा दो इस भारत माँ का !!!!

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