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जड़ के जड़ रह गए पेड़ तुम !
Hindi Poetry |
जड़ के जड़ रह गए पेड़ तुम !
वर्ना अपनी जड़ों के नीचे
जो बहुमूल्य खनिज रखते थे
उनका कुछ व्यापार जमाते.
कुछ तो काम की जुगत लगाते
मुफ्त लुटाते फूल न फल भर,!
पेड़ अचर के अचर रहे तुम,
नियति इसी से बस ये पाई,
रौंदें कुचलें तुमको जी भर,
चर जाएँ जब चाहें जानवर.
अचर अगर यूँ ही रहना था,
अचरणीय बनाना था तरुवर !
बेंट कुदाली के दिल में थी
गड्ढा खोद लगाया तुमको,
बेंट कुल्हाड़ी के सिर में थी,
दे दे चोट गिराया तुमको.
दिल में बसना ही बेहतर था
लोहे के चढ़ना न ठीक सर.!
पेड़ ! पड़ी महंगी सीधाई,
चुन कर तुमको काट ले गए,
भूले झूले, ठंडक ठुकरा-
कर तुमको सब हाट ले गए.
टेढ़े बांके छोड़ गए बस
रोने को अपनी किस्मत पर !
हरियाली अभियानों के बस
मंचों पर उद्धरण हो गया,
रोपण, भाषण अभिभाषण का
बस नगण्य एक चरण हो गया.
वातावरण बनाने वालों-
की नज़रें थीं बस कुर्सी पर !
साधु सरिस परमारथ हित तुम
सिर्फ बदन धारे, कहते हैं,
फल उसको भी दे देते हो
जो पत्थर मारे, कहते हैं,
ऐसा भोलापन जित जल्दी
छोड़ सको, छोडो, तो बेहतर.!
सुके खेत मैं एक हरा हरा पौधा….जय श्री कृष्ण
@kishan, bhsha se aisa vyavhar achchha nahi kishan ji, suke nahin sookhe likhna chahiye, thanks.
वाह एस एन साहब !!!! बहुत खूब । बहुत ही तगड़ा प्रहार है ।
सोते हुए सीधे लोगों को जगाने वाली रचना है, बहुत ताकतवर रचना !
दिल से तारीफ़ निकल आयी।
बहुत-2 बधाई !!!! STAR= 5
@Harish Chandra Lohumi, aap ke dil tak pahunchi mehnat safal hui, dushyant kumar ki panktiyan yaad aa gayin-
mere seene me nahin to tere seene me sahi,
ho kahin bhi aag lekin aag jalni chahiye.
बहुत सुन्दर अंदाज़ और रचना
पेढ़ ही बड़े वरदान हैं हमें इस दुनिया और जीवन में .
हार्दिक बधाई .
पेढों की ही ये उदारता
बचा रही है हमरी दुनिया
गर ये भी गायब हो जाए
न रहें मानव न रहे दुनिया ….
@Vishvnand, dhanyvad vishv ji.
nice one sir….
@Bhavana, I am obliged Bhavna.
भाई वाह, क्या बात है, बहुत ही सुंदर और कटाक्ष करती रचना, पढ़ कर मज़ा आ गया एस.एन. बहुत बहुत बधाई.
@U.M.Sahai, meri husalaafzaai ke liye dhanyvad sir, kripa banaye rakhen.
कितनी मार्मिकता के रस से परिपूर्ण हैं आपकी ये रचना, खासकर ये पंक्तियाँ दिल पर प्रहार करती हैं –
साधु सरिस परमारथ हित तुम
सिर्फ बदन धारे, कहते हैं,
फल उसको भी दे देते हो
जो पत्थर मारे, कहते हैं,
ऐसा भोलापन जित जल्दी
छोड़ सको, छोडो, तो बेहतर.!
पेड़ ने अपनी प्रकृति नहीं त्यागी वो अपनी कुछ न कुछ देने की प्रवृति , चाहे वो उसकी छाया हो, या उसके तन के हिस्से यानी लकडियाँ, से कभी विमुख नहीं हुआ मगर ये स्वार्थी इंसान उसके तन को वार के सिवा कुछ न दे सका – मैं आपकी इस रचना का सर झुका कर अभिनंदन करता हूँ सिंह साहिब
@sushil sarna, aap ke pyar aur prashansa ke bol mere liye anmol hain dhanyvad sarna sahab. kavita to koi aur hi rachta hai ham to nimitt matr hain, aap bhi kavi hain, behtar jante honge.
beautiful poetry,meaningfull too
@alka, thanks, meaningful means what, do you think most of the poems on the site do not fulfil that criteria.