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वर्षा ऋतु

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Hindi Poetry, Sep 2010 Contest


दूर कहीं जब बादलों को आते देखता हूँ
तो लगता है जैसे
किसी नवयुवती का विवाह से पहले
श्रृंगार होने को है,
बादलों का झूम झूम के
झुण्ड में आना
और उनका गरजना
सहर्ष ही ऐसा लगता है जैसे
धरती और गगन के स्वयंवर में
बादलों की बरात आई है ,
बिजली की चमक और आवाज
जैसे मालुम होती है की
खुशियाँ मना रही हैं ,
उनके इस खुशी में शुरुवात होती है
प्यार की हलकी झींसी से
जो धरा को सजा के रख देती है,
और धरा के
रग रग में भीनी से खुशबू
को छुपा के रख देती है,
यही नहीं
लगता है
आज तो रवि भी
दूर अपनी किरणों से
इन्द्र धनुष बना कर खुशियों का
इज़हार कर रहा है,

और
भू-स्वयंवर में अपनी उपस्थिति
का हुंकार भर रहा है,

प्रकृति का हर कण कण
अपनी मदमस्त अदाओं में खोया है
प्रतीत होता है जैसे
नए उदय का खवाब संजोया है ,

आज धरती का हर प्राणी
शुक्रगुजार है
हर उस पल का,
कायनात का
जिसने इस स्वयंवर में

अपनी भूमिका निभाई,

और प्रकृति में
खुशियों की बहार लायी,
और ये
अम्बर को धरा से मिलाने
वाले दिन
एक स्वर में
वर्षा (वर-शा) ऋतु कहलायी….

रचनाकर्ता- अनुज श्रीवास्तव

7 Comments

  1. pallawi says:

    liked it!!

  2. Mavi Kapoor says:

    @pallawi,
    Danybaad

  3. Vishvnand says:

    बड़े कूब्सूरत अंदाज़ और सुन्दर रचना
    बहुत मनभावन
    हार्दिक बधाई

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