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औरत हूँ!

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Hindi Poetry

रोज़ सबेरे
चौके में
चूल्हे के पीछे
कहानी वही गढ़ती हूँ
औरत हूँ, बीज लिए फिरती हूँ!

बर्तन का शोर
धुंए की हल्की भोर
बनी मेरी आवाज़
लगे मधुर, बिना कोई साज़
औरत हूँ, ख़ामोशी को पढ़ती हूँ!

पति का सम्मान
बच्चो की मुस्कान
घर की मर्यादा और मान
ध्यान सबका मैं रखती हूँ
औरत हूँ, भविष्य रचती हूँ!

खुली हवा में घुटती हूँ
बिना हथियार लडती हूँ
माटी से बनी
गूंगी गुडिया
औरत हूँ, रोज़ बनती और टूटती हूँ!

6 Comments

  1. nitin_shukla14 says:

    बहुत ही ख़ूबसूरती से आपने एक औरत के मन की भावनाओं को व्यक्त किया है
    खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ यह कहने में-

    ” न हो अबला नारी तुम, न अब तुम दुखियारी हो
    शक्ति की देवी हो तुम,सब रूपों में तुम प्यारी हो”

  2. rajivsrivastava says:

    kya baat hai rachna ji -naari ke tyaag ko jis din jag samajh payega,har taraf sukh basrega ye jahan khusiyo se bhar jaayega–bahut sunder rachan hai

  3. pallawi says:

    खुली हवा में घुटती हूँ
    बिना हथियार लडती हूँ
    माटी से बनी
    गूंगी गुडिया
    औरत हूँ, रोज़ बनती और टूटती हूँ!
    kya likhti hain aap!! bohut pasand aayi!!

  4. sudha goel says:

    दुर्गा काली मल्लिका बिपाशा , सब दिखती है तुझमें मुझको
    कस्तूरी मृग सी घूम रही तुम , अब तो पहचानो खुद को !!
    सुधा गोयल

  5. Harish Chandra Lohumi says:

    क्या बात है रचना जी!!
    गहन चित्रण !!! गज़ब चित्रण !!!
    बधाई !!!

  6. parminder says:

    Just beautiful!!! No other words to describe this deep beauty!

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