« आग को न छेड़ो | मुझे मौत के और करीब ले जाता है » |
अब सुकून आ गया थोडा ……..!
Hindi Poetry, Podcast |
Sukoon aa gaya thoda Fयह मेरी इक पुरानी रचना (Yr. 1990), मेरे retire होने के 2/3 साल पहले उभरी थी.
करीब दो साल पहले पोस्ट की हुई यह रचना अब इसके नए पॉडकास्ट के साथ पोस्ट करने में बहुत खुशी महसूस कर रहा हूँ, यह रचना मेरी बहुत प्यारी है और इसमें सूझी और विदित की हुई Philosophy के पालन के ही बदौलत मेरा Retirement जीवन प्रफ्फुल्लित रहा है ये जरूर कहना चाहूँगा……..
अब सुकून आ गया थोडा ……..!
अब सुकून आ गया है जिन्दगी मे थोडा,
जब से मैंने औरों संग दौड़ना है छोडा…
जब से मैंने औरों जैसा दौड़ना है छोडा…l
अब तो वक्त मिल रहा है, कुछ तो ख़ुद के वास्ते,
सोचने मैं कौन हूँ, और कौन से हैं रास्ते.
लग रहा है सब नया, जो दृष्टि कुछ नयी मिली,
पहले जैसी दुनिया भी है, लगती अब नई नई
भा रहा निसर्ग जैसे स्वर्ग ही यथार्थ ये,
मुक्त मन जो हो गया है, व्यर्थ के स्वगर्व से,
मुक्त मन जो हो गया है, अर्थहीन स्वार्थ से…..i
वक्त जो गुजर गया है, उसकी न परवाह है,
हाथ मे समय बचा है, पल पल उससे प्यार है.
हूँ अलिप्त मैं मगर, सर्व में जुटा हुआ,
दलदलों में देख कमल, सुंदर सा जी रहा……..l
अब जो राहें चल रहा हूँ, कुछ तो ख़ुद चुनी हुईं,
हर छलांग पे यहाँ हैं, मंजिलें नयीं नयीं .
बाजी ख़ुद से है यहाँ, इंसान पूर्ण बनने की,
दिन-ब-दिन नया नया प्रयोग, ख़ुद ही करने की…..l
है कठिन ये राह, फिर भी चलने में सुकून है,
ना किसीसे दोस्ती, न दुश्मनी की शर्त है.
पास कुछ नहीं, जो मेरे, खोने का मैं भय धरूँ,
ज्ञान ये हुआ, की ज्ञान ही बटोरता फिरूं………l
ये है ऐसी राहें, जिनको भी मेरी तलाश है,
मंजिलें ये ऐसी, जिनको मेरा इंतजार है,
मंजिलें ये ऐसी जो मेरे ही आसपास हैं…….l
अब सुकून आ गया है जिन्दगी मे थोडा,
जब से मैंने औरों संग दौड़ना है छोडा…
जब से मैंने औरों जैसा दौड़ना भी छोडा……l
” विश्वनंद “
bahut hi prernadai rachna—bahut sahi likha sir—aur saath main meri pasindida awaj wah! kya baat hai—badahai
बहुत ही सुन्दर सर जी…
वाह सर ! क्या बात है ! इतना सब कुछ पढते हुए लग रहा है जैसे कि आप हमारे संग-संग चल रहे हैं गपशप करते हुए । Outstation होने के कारण Podcast नहीं सुन पा रहा हूँ लेकिन अवश्य रसपान करूँगा मौका मिलने पर ।
हार्दिक बधाई !!!
मधुर और रसाभिषिक्त रचना, सेवा निवृत्ति के बाद महसूस हुई मुक्ति अब भी यथावत है यह सिद्ध हो गया.
सेवा-निवृत्ति पश्चात् उपजी भाववृत्ति और उद्गारों का बहुत ही सटीक एवं
प्रेरणात्मक लेखन है यह ! ५-सितारे न्यूनतम अंकित होने को लालायित हैं !
आज दोपहर को इसका पॉडकास्ट भी सुनना हैं ! बहुत बहुत बधाई !
बहुत ख़ूब…बहुत सुन्दर आवाज़ व संगीत से सुसज्जित…
मज़ा आ गया दादा… 🙂
यह रचना नौकरी का दर्द भी बयाँ करती है…जिसमें खोकर व्यक्ति मनचाहा नहीं कर पाता और स्वयं को वक़्त नहीं दे पाता…
(मामूली से सुधार हैं…जैसे “थोडा” “छोडा” होगा “थोड़ा” “छोड़ा”, “नयीं नयीं” होगा “नयी नयी”, “मे” होगा “में”, “किसीसे” में स्पेस आएगा…”की ज्ञान ही” होगा “कि ज्ञान ही”, “चुनी हुईं” होगा “चुनी हुई”)