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आओ तुम्हें लगाऊं गले
Hindi Poetry |
आओ तुम्हें लगाऊं गले
ऐ दोस्त मेरे ओ दिल जले
बरसी है ये धूप अभी
झुलसे तो तुम बरसों से
सहला दूँ, आओ बैठें छाँव तले
आओ तुम्हें…
आग लगे बोलों से मीठे
रौशनी देखी कड़वी ही
काफ़िर तो, रह सके न बे-जले
आओ तुम्हें…
दोस्ती पर मर हम मिटें
प्यार पर ज़िंदा हैं अब तक
करें क्या, दुश्मनी का दौर चले
आओ तुम्हें…
खौफ़ यूँ तो आता नहीं है
हाँ गल्त हों हम तो डरें
जुर्म ये, तो सच्चे ही हम भले
आओ तुम्हें…
जाए न इज्ज़त डरते सब
जागीर है करना बेइज्ज़ती
इंसान हैं, जज़्बातों को खले
आओ तुम्हें…
सुन्दर रचना – बधाई
“आग लगे बोलों से मीठे
रौशनी देखी कड़वी ही
काफ़िर तो, रह सके न बे-जले
आओ तुम्हें”…की व्याख्या कर दें तो अच्छा लगेगा !
रचना काफ़ी अच्छी लगी ! बधाई !
हरीश जी, पसंदगी पर नतमस्तक हूँ…यह मेरी काफी पहले की रचना है जो व्याकरण से सज्जित नहीं. बस दिल और दिमाग ने जो बुना वो लिख दिया था. “आओ तुम्हें…एक तरह का आत्म-संवाद है जिसकी कोशिश है की शायद किसी पाठक को एक आत्म झलक दिखे किसी माने में..या एक साधारण तृतीय पुरुष में इसकी बानगी जान लें. इतना ही इस रचना का सन्दर्भ है.
जाए न इज्ज़त डरते सब
जागीर है करना बेइज्ज़ती
इंसानी हैं, जज़्बातों को खले
आओ तुम्हें…
इन पंक्तियों का तात्पर्य समझ न पाया.तुक मिलाने की कोशिश में कथ्य को भुलाना ठीक नहीं लगता है.
सिद्धनाथ जी..पहली दो पंक्तियाँ तो बस यही कह रही हैं की अपनी इज्ज़त खोने का खौफ लिए हुए भी कुछ लोग दूसरों की बेईज्ज़ती को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ बैठते हैं. और यह बात कोमल जज़्बात को खलती है..क्योंकि हैं तो आखिर इंसान ही न..इंसानी लफ्ज़ को इंसान कर देना चाहिए, सो कर रहा हूँ. आपकी सलाह ने मदद किया…सधन्यवाद!