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काश मुड़ कर कभी देखते

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Hindi Poetry

काश मुड़ कर कभी देखते

तुम मेरी बेबसी देखते.

 

सारा आलम अँधेरा न था

तुम अगर रौशनी देखते.

 

पत्थरों  को हटाते अगर

नीचे बहती नदी देखते.

 

ये शहर है पडोसी को भी

 लोग अक्सर नहीं देखते.

 

मोम था मैं परखते तो तुम 

 रख के टुक हाथ भी देखते.

 

दुश्मनों से सभी जा मिले

हम रहे दोस्ती देखते.

 

जुर्मे उल्फत किया, आप की

ताकि हम मुंसिफी देखते .

 

इससे पहले कि मुहरे बनो

चाल किसने चली देखते.

 

अपने चश्मे बदलते अगर

आप दुनिया नयी देखते.

 

सब मुखौटे उतरते अभी

बस घडी दो घडी देखते.

 

हर नज़र ने लिया जायज़ा

एक तुम ही नहीं देखते.

 

क्यों धुएं से हुए बदगुमां

तुम मेरी आग भी देखते.

 

धर दी तोहमत मेरे सर,मगर

क्या गलत क्या सही देखते. 

6 Comments

  1. Vishvnand says:

    बहुत अच्छी,
    बढ़िया अंदाज़

    तरक्की की कहने मरते शर्म से
    गर घरबार गरीबों के देखते …

  2. Abhishek Khare says:

    Bahut hi shandar rachna

  3. Harish Chandra Lohumi says:

    कभी न कभी तो उन्हें देखना ही होगा एस एन साहब !
    अच्छी रचना !

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