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गलना ,सूखना व जलाना

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Hindi Poetry

कभी गलाने के लिए पानी

सुखाने के लिए हवा

जलाने के लिए ईंधन

और लीपने के लिए माटी

जुटते २ पल पल

गलती रही जिन्दगी

सूखती रही जिन्दगी

जलती रही जिन्दगी

और सिमटती रही जिन्दगी

धीरे धीरे पल पल

और यूं ही होता रहा सवेरा

कभी खूब दिन चढ़े

कभी पौ फटे

कभी उस से भी पहले

कभी बहुत पहले

फिर समाप्त हुआ

शाम, रातऔर सुबह का अंतर

क्यों कि अभी और भी था

गलना ,सूखना और जलना ||

9 Comments

  1. Vishvnand says:

    कविता लगी जैसे इक प्यारा गहना
    गहन भावना जटिल वेदना
    बड़ी बधाई संग ऐसा ही कवित्व फले उम्रभर
    और हमें मिले पढ़ने
    यही हार्दिक मनोकामना

    Kudos for the poem

  2. dr.ved vyathit says:

    आप की हार्दिक आशीष वृति ही मेरा सम्बल है
    हार्दिक आभार

  3. Harish Chandra Lohumi says:

    बहुत अच्छे डा0 साहब ! कौन सा परिवर्तन कहेंगें इसे ? 🙂

  4. rajivsrivastava says:

    bahut hi sunder rachna sir badahai

  5. pallawi says:

    अन्तेर्मन तक पहुँचती हुई रचना बोहुत बधाई सर !

    • dr.ved vyathit says:

      @pallawi, पल्लवी यह स्त्री विमर्श की अलग प्रकार की रचनाएँ हैं आप की सहृदयता के कर्ण आप को अच्छी लग रही हैं आभार

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