« FACSIMILE | हे प्रभु मेरे, प्रभु मेरे ….!(My Lord dear….!) » |
गलना ,सूखना व जलाना
Hindi Poetry |
कभी गलाने के लिए पानी
सुखाने के लिए हवा
जलाने के लिए ईंधन
और लीपने के लिए माटी
जुटते २ पल पल
गलती रही जिन्दगी
सूखती रही जिन्दगी
जलती रही जिन्दगी
और सिमटती रही जिन्दगी
धीरे धीरे पल पल
और यूं ही होता रहा सवेरा
कभी खूब दिन चढ़े
कभी पौ फटे
कभी उस से भी पहले
कभी बहुत पहले
फिर समाप्त हुआ
शाम, रातऔर सुबह का अंतर
क्यों कि अभी और भी था
गलना ,सूखना और जलना ||
कविता लगी जैसे इक प्यारा गहना
गहन भावना जटिल वेदना
बड़ी बधाई संग ऐसा ही कवित्व फले उम्रभर
और हमें मिले पढ़ने
यही हार्दिक मनोकामना
Kudos for the poem
@Vishvnand, आप की आशीष वृति ही मेरा सम्बल है
आप की हार्दिक आशीष वृति ही मेरा सम्बल है
हार्दिक आभार
बहुत अच्छे डा0 साहब ! कौन सा परिवर्तन कहेंगें इसे ? 🙂
@Harish Chandra Lohumi, भाई हरीश यही टी जीवन की सच्चाई है
बहुत २ आभार
bahut hi sunder rachna sir badahai
@rajivsrivastava, हार्दिक आभार है बन्धुवर
अन्तेर्मन तक पहुँचती हुई रचना बोहुत बधाई सर !
@pallawi, पल्लवी यह स्त्री विमर्श की अलग प्रकार की रचनाएँ हैं आप की सहृदयता के कर्ण आप को अच्छी लग रही हैं आभार