« Even on a picture,though | FACSIMILE » |
तब मंदिर बने
Hindi Poetry |
आखिर क्या मजबूरी रही होगी उस इंसान की, जिसने पहली बार भगवान् को अपने जीवन से दूर एक अलग घर में छोड़ा होगा?
इसी अजीब से प्रश्न को देखने का एक नया और अजीब रवैया लेकर आया हूँ
तब मंदिर बने
एक दिन यूँ ही भावनाओं में बहकर मैं
उसको वहां से अपने साथ ले आया
सोचा था बस जाएगा वो भी साथ हमारे
जैसे कितने ही रिवाजों ने है घर बनाया
पर देखकर इस दुनिया की दुनियादारी
वो कुछ इस तरह से तिलमिलाया
की मैं भगवान् को मंदिर में छोड़ आया
पहले पहल तो हर किसी ने उसे अपनाया
उसकी बातें सुनकर तारीफों का पुल भी बनाया
पर जब चलने की बात की उसने दिखाई राह पर
सबने उसे भटका हुआ राही बुलाया
बस इसीलिए मैंने एक मंदिर बनाया
सब जानते थे की उसकी पहचान क्या है
सब जानते थे की उसका पैगाम सच्चा है
पर भीड़ के सामने कोई आवाज़ न उठा पाया
इसीलिए मैं भगवान् को मंदिर में छोड़ आया
बधाई है, बहुत सुन्दर अंदाज़ और रचना है बड़ी शानदार
चाहे उस महाशक्ति को रखो मंदिर मस्जिद या गिरिजाघर
वो वहां नहीं दिल में बसता है उनके जो चले उसकी बात मानकर …
commends for the poem
@Vishvnand,शुक्रिया सर 🙂
अच्छी रचना ! मनभावन ! बधाई !
मनभावन रचना के साथ-साथ अन्य कवितायें भी बाट जोह रहीं हैं आपकी मनभावन प्रतिक्रिया की ! 🙂
@Harish Chandra Lohumi, आपका बहुत धन्यवाद इस प्रोतसाहक प्रतिक्रिया के लिए