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तलछटें
Hindi Poetry |
रोज़ एक ज़रा सी कॉफी छूट जाती है
दिल के कप में उड़ेली ज़िंदगी की बातें
तेरी-मेरी इसकी-उसकी चुस्की-चुस्की
घूँट-घूँट वक्त काम-काज से चुरा के
आज से कल, कल से आज,
परसों, नरसों, बरसों
रोज़ की आदत है कॉफी यूँ पीते जाना
पहले शौक़-ए-ग़ालिब फिर ‘ज़ौक-ए-सयाना’
जज़्बे तो पलते हैं अंजाम तक जाने के
पर हर रास्ते में नया आगाज़ एक होता है
दिल सबका रखने की नाक़ाम सी ये कोशिश
नाज़ुक सी प्याली है उम्मीद टूट जाती है
रोज़ एक ज़रा सी कॉफी छूट जाती है…
एक चिपकती हुई मिठास छोड़ गयी रीतेश जी ! 🙂
कॉफ़ी की तल्खियत में छिपी मिठास को कुछ आपसे ख़ास ही देख सकते हैं, शुक्रिया हरीश जी!
🙂 एक उड़ता हुआ सा बादल था, कुछ बूँद बरसा के जाने किधर निकल गया!
वाह बहुत ही बेहतरीन …. बढ़िया
सराह के लियी बड़े उत्साह से आदर भरी निगाह! धन्यवाद अंजू जी!
बहुत से लोग प्याले में बची चाय देख कर भविष्यवाणी करते हैं, हम कॉफ़ी देख कर कहेंगे उज्जवल भविष्य दिखाते हुए चीकने पात.
सिद्ध जी…क्या कहूँ, आपके लफ्ज़ कर देते हैं मन को खिज़ां से सब्ज़!
nice and a different approach..keep it up nd keep sharing 🙂
थैंक्स प्राची जी!
रचना पढ़ देखता रह गया
बची हुई थी जो कॉफी कप में
बहुत शानदार बढ़िया अंदाज़
छलक रहा था सारी रचना में …
Hearty commends for a beautiful poem ….
दादा जी, आपके आशीर्शब्द सच कहता हूँ दुआओं के बोल हैं!
पूर्णतः पठनीय एवं स्मरणीय ! बढ़िया – ४-सितारे – लिखते जाओ ऐसी रचना !