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फिर कहाँ शाख से टूटकर पत्ते हुए सब्ज़ दोस्त…

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अच्छा हुआ आप हम पर बेवफा निकले
खुद से मिलने का अब शायद रास्ता निकले

बिस्मिल तेरे दर पर मसीहा का आ गया साक़ी  (बिस्मिल-घायल)
क़तर-ए-शराब से तेरी ही कोई शिफ़ा निकले    (शिफ़ा-इलाज)

ख़ुदी को खोकर कोई होता है फ़रहाद कोई कैस
ये गलियाँ हैं जहाँ रहनुमा खुद को ढूंढ़ता निकले 

क़त्ल शौक़ से कह दो करे कातिल मेरा
शर्त है ता उम्र न लबों से उसके नामे वफ़ा निकले

फिर कहाँ शाख से टूटकर पत्ते हुए सब्ज़ दोस्त
संभालो दुनियाँ कोशिशें तुम्हारी न राय्दां निकले
बड़ी मिन्नतों से मर्ज़ दिल का लगाया है शकील
फिर न वक़्त-ए-बेमेहर के हांथों से दवा निकले

3 Comments

  1. neeraj guru says:

    शकील भाई जबाब नहीं.
    बिस्मिल तेरे दर पर मसीहा का आ गया साक़ी
    क़तर-ए-शराब से तेरी ही कोई शिफ़ा निकले
    इस तरह के शे’र पढ़कर दिल को जो सुकूँ मिलता है वो खुदा ही जनता है कि क्या मिलता है.

  2. anju singh says:

    waah bahut khub… kya baat hai.. puri rachna ka saar in panktiyon mai samya hai… “बड़ी मिन्नतों से मर्ज़ दिल का लगाया है शकील
    फिर न वक़्त-ए-बेमेहर के हांथों से दवा निकले”
    behad दर्दभरी or mramsparshi lagi mujhe yah rachna par bahut sachi bhi.. .
    dhanywad

  3. rajiv srivastava says:

    kaamal hi kammal hai teri is nazm main shakeel bahi— subhan Allaha!

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