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एक कण

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Hindi Poetry

एक कण किनारे पर पडा सोचता रहा .. कहाँ से वो है आया ..और कहाँ आ गिरा .. कहाँ वो पर्वत कि असीम ऊंचाई और कहाँ ये रेत का जंगल …. जब एक विशाल चट्टान सा छिटक अलग हुआ था अपने अस्तित्व से .. तब ये सोच खुश था कि नयी दुनिया मिलेगी देखने को .. समुद्री हवाओं और लहरों के थपेडे खा मस्त था अपनी ही धुन में .. पवन , बादल , गगन सब से बातें करता इठलाता झूमता चल रहा था .. आज यहाँ सूखे किनारे पर इक नन्हा सा कण बन करे है इंतेज़ार अपने विशाल पर्वत कि बाँहों में इठलाने का .. समय ने उस भीमकायी चट्टान को बना दिया है इक कण ..सिर्फ इक छोटा सा ‘कण’ ………..

क्या कभी मिलेगा मौका उसको भी फिर जीने का ? फिर उस ऊंचे शिखर से मिल जाने का? फिर कण से पर्वत बन जाने का?

यही सोच आज यहाँ बहला रहा है अपने को उन मासूम नन्ही हंसी में, उन स्नेहिल स्पर्श में जो भावविभोर हुए जाते हैं अपने ही नन्हे घरोंदो को लहरों से मिटते देखते हुए , जो पुलक जा फुदकते हैं नन्हे क़दमों से .. कभी यहाँ तो कभी वहाँ … करे है वो इंतेज़ार उस हवा का जो इक दिन फिर पहुँचायेगा उसे अपने पर्वत पर….!!!

~१६ /०१/२०११ ~

 

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