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तू एक काठ की गुड़िया!
Hindi Poetry |
तू एक सजीव, स्वावलंबी संसार की जननी है,
या किसी पुरुष द्वारा बनाई एक काठ की गुड़िया,
जो अपनी ज़रूरत के अनुरूप तुझे ढालता है ,
खुद को जो मोहक लगे, ऐसे रंग तुझमे भरता है!
कब ,कहाँ,कैसे इस्तेमाल करना है, ये वही बतलाता है,
बस समय-समय पर तेरा नाम बदल जाता है!
कभी कोई बेटी कह कर तुझसे काम करवाता है,
तो कभी कोई बहू कह कर अपने घर ले जाता है!
क्या फ़र्क पड़ता है,यहाँ तुझे वही सब करना है,
दूसरो को खुश रखना ही अपना धर्म समझना है!
इच्छाएँ,अरमान,स्वाभिमान जैसे शब्दो से तेरा क्या वास्ता,
तुझे तो अंधकार की और ले जाता है हर एक रास्ता!
कर्म,कर्तव्य,ज़िम्मेदारी तेरे ही हिस्से क्यो आती है,
और अधिकार की बाते तुझे चिता की और ले जाती है!
जिस दिन तेरा रंग फीका पढ़ जाता है,
उस दिन से हर कोई तुझसे कतराता है!
मत यूँ गुलामी की जंजीरो को खुद को जकड़ने दे,
खोल अरमान के पंख , खुद को आकाश मे उड़ने दे!
जिस दिन नारी तू खुद को पहचान एक हूँकार भरेगी,
ये धरती ढोल उठेगी ,दुनिया तेरे कदमो मे झुकेगी!
डॉक्टर राजीव श्रीवास्तवा
आदरणीय राजीव जी
बिलकुल सही कहा आपने!!!
औरतों के दर्द का इजहार करती सशक्त रचना ,बधाई !!!
@santosh bhauwala, dhanyavad aap ko pasand aayi ,khushi hui
Hullo Rajiv,
Beautiful poem , well structured . yes women ought to fly in the sky but she does not look on her responsibilities as burdens . They give her a sense of belonging and roots . She is structured to belong physically and yet fly in spirit .
regards (Can read Hindi well but can’t express in Hindi)
sarala
@SARALA, thanks a lot it’s moral responsibility of all the writers to give such message through there writings ,to give justice to many such womens who are still facing these problems –thanks
वाह राजीव जी, बहुत सशक्त कविता है| बड़े शहरों के कई हिस्सों में आज नारी का स्थान इतना नीचा नहीं रहा पर हाँ, कार्य-भार बढ़ता ही जा रहा है| पर शायद सोच भी बदल रही है, आज का मर्द भी समझ रहा है और ज़्यादातर साथ भी दे रहा है, यह शुक्र है! ज़रुरत ई तो सब को शिक्षित करने की!
@parminder, dhanyavad ,te soch kuch had tak badali hai–par abhi bhi kai jagah aisa hota hai—-ab jaroorat yahi hai ki hum sabhi is soch ke virudh khade ho
सुंदर
बहुत २ बधाई
@dr.ved vyathit, bahut bahut dhanyavad sir
आपकी कविताओं के विषय वास्तव में अन्तः को छू जाते हैं डाक्टर साहब !
नारी दशा का वास्तविक प्रतिबिम्ब दर्शाती अनूठी रचना . बहुत ही संतुलित रचना ! बधाई !
@Harish Chandra Lohumi
aap ke comment se kafi utsah vardhan hua hai, —– bahut bahut dhanyavad
बहुत बहुत बहुत सुन्दर
@chandan, bahut bahut bahut dhanyavad
बहुत सुंदर रचना. मैं बहुत खुश हूँ के ऐसी कविता एक मर्द ने लिखी है. क्या खूब पहचाना आप ने औरत के दर्द को. बहुत बहुत बधाई.
@Jaspal Kaur, baat ek mard ki nahi hai———-ye hum sabhi ki samaj ke prati natik jimmedari hai—shukriya
बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण और विषय पर अति प्रभावी रचना
बहुत कुछ बातों की समझ दिलाये .
“इच्छाएँ,अरमान,स्वाभिमान जैसे शब्दो से तेरा क्या वास्ता,
तुझे तो अंधकार की ओर ले जाता है हर एक रास्ता!
कर्म,कर्तव्य,ज़िम्मेदारी तेरे ही हिस्से क्यो आती है,
और अधिकार की बाते तुझे चिता की ओर ले जाती है!” सन्दर्भ में बहुत सुन्दर पंक्तियाँ …
पुरुषों ने माता समान स्त्री जाति का आदर करना अपनी संस्कृति है
स्त्रियों ने खुद अपने मातासमान स्वभाव से पुरुष जाति का और उसके अस्तित्व का ख्याल रखना ये भी अपनी संस्कृति है
इक दूसरे का आदर नहीं करना समानता को बिगाड़ना और अत्याचार कर झगड़ते रहना ये तो अपनी संस्कृति नहीं है
फिर कहाँ से और क्यूँ ऐसा है, इस असमानता को बढावा देने कायम रखना चाहनेवाले कौन है उनका सही बंदोबस्त करना और होना जरूरी है. स्त्री और पुरुषों की मिलकर लड़ाई तो उन समाजकंटको से होनी चाहिए चाहे वो पुरुष हों या स्त्री….
रचना पढ़ यह भाव स्पष्ट उभरे
रचना के लिए धन्यवाद और हार्दिक बधाई ….
बहुत सुंदर कविता है ..मुझे अच्छी लगी !