« “छुन्नू-मुन्नू” | एक, दो, तीन, चार ……. बस » |
देखकर जन्नत उसका घर हमे याद आया है…..
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उलझे खुद और खुद को ही फिर सुलझाया है
तनहाइयों ने जीने का ये हुनर हमे सिखाया है
जिस की तपिश से जल गया मेरा वजूद सारा
सुलगता कुछ तुम्हे मेरी आँखों में नज़र आया है
खुशफेहमियों में जी रहा हो वो भी शायद
सोच बैठा है की उसने भी मुझे भुलाया है
उसकी खुशबू से तर हैं आज भी मेरी कायनात
मुद्दतों पहले जो उसके दमन को हाथ लगाया है
हर एक फ़ेल बेमकसद हर बात बेमाइने हुई (फ़ेल – क्रिया,काम)
बुलंदियों का नशा उसपर रफ्ता रफ्ता छाया है
हर हादसे के मोती पिरो दिए मेरी खातिर
शाह ग़मों का ही सही उसने मुझे बनाया है
जब के मातम है जारी मरहूम हसरतों का
लेकर वफ़ा के तोहफे वो आया तो क्या आया है
जो गिरे हैं चुनलेगा गुलचीन उन्हें भी कभी (गुलचीन – माली)
घर में उसके देर है नहीं अँधेरे का साया है
ले गए फ़रिश्ते उसकी बारगाह में हमे शकील
देखकर जन्नत उसका घर हमे याद आया है
वाह! शकील भाई! आप का अंदाज़ ही निराला है . दिल खुश हो जाता है.
bahut bathtar, subhan allah. andhere ko andher kar deejiye penultimate sher me.
बहुत ख़ूबसूरत है लिखावट…
इस लिखावट का क्या कहना…
मुझे तो डर है … कुछ ज्यादा कहकर
मै कोई खता न कर दु…!
लाजवाब है….बस्स…!
Wah shakeel sahab wahh… alfaz nahi hai mere, is gazal ki taarif ke liye…