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मेरी क़सम लैला को क्यों खिला रहा है कोई…..
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सूखे ख़्वाबों को जैसे कहीं जला रहा है कोई
धुंआ धुंआ सा फिज़ाओं में नज़र आ रहा है कोई
लौट न आये कहीं धड़कन सिने में देखना
सदाओं से अपनी वफायें मेरी आज़मा रहा है कोई
यूं लिपट कर कब्र से रोता है अक्सर कोई
जैसे मैं रूठा हूँ और मुझे मना रहा है कोई
गुज़ारे दिनों के निशाँ है उनके आरिजों पर
मियाँ आप तो कहतें थे मुझे भुला रहा है कोई
(आरिजों-गाल,चेहरा)
मूंह पर रख आमरीन की रिदाँ रोपड़ी कहकशां
दास्तान अर्श पर मेरी फिर दोहरा रहा है कोई
(आमरीन-आसमान),(रिदाँ-चादर)
हैरत से देखा हजरते मजनू ने चेहरा मेरा
मेरी क़सम लैला को क्यों खिला रहा है कोई
ज़बीं पर धुंधले से हैं सजदों के निशाँ मेरे (ज़बीं-माथा)
नादान सा मेरा भी एक खुदा रहा है कोई
बहुत दिनों के बाद कही मैंने ये ग़ज़ल शकील
न तुम समझना मुझे याद फिर आ रहा है कोई
बहुत खूब बहुत बढ़िया
क्या बात है
stars 5
बहुत दिनों के बाद कही ये खूबसूरत ग़ज़ल तुमने शकील
और कहते हो न समझना तुम्हे फिर याद आ रहा है कोई 🙂
बहुत अच्छी ग़ज़ल. हाँ, हम कई दिनों से सोच रहे थे के आप की कई दिनों से ग़ज़ल नहीं पढ़ी.
बहुत अच्छी गजल बनायी है शकील भाई
बहुत ही बढियां ग़ज़ल शकील साहब…! मेरी ओर से भी ५***** है..! अन्द्दाज़ बहुत ही लाजवाब….! 🙂
कुछ कहें… चुप रहे…
हैरान है सोच कर हम भी…
ग़ज़ल को ग़ज़लसा बयान करें…
ऐसा फिर बाशिंदा आ गया है कोई…
काट दिए गम-इ-इंतज़ार में…
चंद गुच्छे कुछ दिनों के….
जैसे एक सदी सा वक़्त हमने
आपकी राह में गुजरा है कोई…
आप को पता है शकील जी…
मै आपकी ग़ज़लों का हमेशा से बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ…
आप लिखते बाद में है… मै लाजवाब पहले कहती हूँ… !