« ऐसी क्या मजबूरी है | दिन बच गए हैं चार गिनूँ उँगलियों पे मैं. » |
उठ रहा जो खिलाफत में अन्याय के
Hindi Poetry |
उठ रहा जो खिलाफत में अन्याय के
आप भी भाग बन जाएँ समुदाय के.
हैं जो सहमत तो मिल कर सदा दीजिये
क़र्ज़ धरती का थोडा अदा कीजिये.
फ़र्ज़ ये बस नहीं घर सब अपना भरें
कौर कमज़ोर का किन्तु सपना करें.
जगमगायें महल,कोई शिकवा नहीं,
पर खड़े हो गरीबों को बिकवा नहीं.
गर अँधेरी रहीं बस्तियां चारसू, चारसू-चारों ओर
एक रोशन दरीचा, है शैतान खू. दरीचा-खिड़की,शैतान खू-शैतान की प्रकृति वाला
गर मिली हर तरफ से फ़क़त बद्दुआ
क्या बढ़ाएगा बरक़त पढाया सुआ बरक़त-समृद्धि, सौभाग्य
पाए क्या पीरो मुर्शिद नजरिया बदल, पीरो मुर्शिद-ज्ञानी गुरु
आज तक ज्यों के त्यों जग में जंगो जदल. जंगो जदल-संघर्ष और अशांति
हो अँधेरा इधर, हो उजाला उधर,
लाजमी है अमन को लगेगी नज़र,
मुंह जो मेहनतकशों के बुभुक्षित रहे.
चंद संपन्न,अधिकांश वंचित रहे.
तो बनाना असम्भव निरा संतुलन,
लाख सीनों की धड़कन न तूफ़ान बन,
कोई टावर कि मजलिस गिराए कहीं,
इससे बचने का कोई उपाय नहीं.
वक़्त की सुन सकें, तो सदा ये सुनें,
बाद में वरना बैठे हुए सिर धुनें.
achchi rchana hai
बहुत अच्छी रचना है ……… क्रपया रचना पोस्ट करने का तरीका बताये . क्या कोई डोनेसन लगता है / इसी कमेंट्स पर भेजे … में देख लुगा .. धन्यवाद
@N.S. Chouhan, jee nahin bas p4poetry site par apne ko register kariye jo aap isi page par top me about us par klik kar jaan sakte hain ki kaise registration hoga.