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ज़िंदगी

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Aug 2011 Contest, Hindi Poetry
तस्वीर का एक पहलू …
इस धरा पर पल रही पल पल सरकती ज़िंदगी
उमर तो बढ़ती रही पर, अकेले ही बीती  ज़िंदगी
शहनाइयां बजतीं कि जब जन्म लेती ज़िंदगी
आंसू बरसते जब घरों से विदा होती ज़िन्दगी

कभी प्रीति विलास में ही रही रमती ज़िन्दगी
कभी प्यार के दो पलों को भी तरसती ज़िंदगी

कभी पुराने संबंधों में खटास भरती ज़िंदगी
कभी अपनों के साथ को रही तरसती ज़िंदगी

प्यार नफरत के पलों में रही पलती ज़िंदगी
इक पल जीती,  इक पल रही मरती ज़िंदगी

सुख दुःख अपने परायों से निपटती ज़िंदगी
लडखडाती, फूल काँटों से उलझती ज़िंदगी

संघर्षों में ही रही बनती बिगडती ज़िंदगी
‘ नून,तेल,लकड़ी ‘ में रही गुजरती ज़िंदगी

स्रष्टि का है नियम नियति की दास होतीज़िंदगी
बाहों में खिलखिलाती, फिर उदास होती ज़िंदगी
अपनों के दीदार  को रही  तरसाती , यूं ही बीती जिंदगी
इंतज़ार करते करते हाथों से ही फिसल न जाए जिंदगी
क्यों न रह पाती प्रफुल्लित और प्रमुदित ज़िंदगी
ओ विधाता ! क्यों बनी बेबस पराजित ज़िंदगी  ?
   तस्वीर का दूसरा  पहलू … यादें 

वो बीते दिन, भूली बिसरी यादें
खुशियों के पल, वफ़ा के  वादें
अवचेतन मन के  पटल  पर
यादों की डोली में होकर सवार
उमड़ते  घुमड़ते रस से सराबोर
छाने लगे मानस पर बार बार
धकेला पीछे  जितनी भी बार
चले  आते  लौटकर  हर बार
बन कर सावन की झीनी फुहार
उन पलों की यादें ताजा कर
मौसम  बन जाता  खुशगवार
पवन  के  झोंको  के साथ
पीछे  छुट जाती उनकी खुमार
अब  तो आदत हो गयी इतनी
बिना इन यादों के होती  बेजार
ना डरती अब चली आओ बेख़ौफ़
स्वागत करती हूँ , मै बाहें पसार 

 संतोष भाऊवाला   



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