« bread for an eye… | Romantic rain » |
जो खुद भी खुल कर खाता हो और उन्हें भी खाने दे.
Hindi Poetry |
फूल खिलेंगे फिर गीतों के गम का मौसम आने दे.
बंद जुबां रख प्यार का मतलब आँखों को समझाने दे.
वक़्त बड़ा है घाघ शिकारी बच के निकलना मुश्किल है,
नए छुरे चमकाए लेकिन अक्सर ज़ख्म पुराने दे.
कैसे मानूं बागबान वो होगा ऊंचे पाए का, ऊंचे पाए-उच्च कोटि
सिर्फ सँवारे फूल चुनिन्दा, बाक़ी को मुरझाने दे.
जो हूँ जैसा हूँ आखिर मैं वैसा ही तस्लीम तो कर, तस्लीम-स्वीकार, मान्यता
घोल ज़िन्दगी में न ज़हर तू घड़ी घड़ी यूँ ताने दे.
वही निजाम जंचेगा उनको,आखिर दुनियादार हैं वो, निजाम-व्यवस्था
जो खुद भी खुल कर खाता हो और उन्हें भी खाने दे.
मुश्किल है हालात बदलना भूखी नंगी खल्क़त के खल्क़त-जनता
काबू में रखना गर इनको खोल नए सौ थाने दे.
एह्तिजाज़ की दे न इज़ाज़त उसे बगावत ठहरा कर, एह्तिजाज़-विरोध
‘खाए जात महंगाई डायन’ दबे सुरों में गाने दे.
गुम्बद को ये अख्तियार है रखे दबाये नींवों को,
जम्हूरियत का उठे जनाज़ा बड़ी शान से शाने दे. जम्हूरियत-जनतंत्र,जनाज़ा-शवयात्रा, अरथी , शाने-कंधे
अहंकार पर आंच न आने पाए बिलकुल सत्ता के,
अनशन धरना करके चाहे जो मरना मर जाने दे.
वाह! एक से बढ़कर एक,
पर इरादे हैं, उनका क्या.
दमदार !!!
@Harish Chandra Lohumi, dhanyavad harish bhai.