« मुझे अपनेपन से जीने दो …..! (Geet) | मेरा चाँद » |
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ
Hindi Poetry |
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ ,
हजारों ख्वाहिशे तैरती है आस-पास,
कुछ कट जाती है सब्जियों के साथ,
तो कुछ को कपड़ों के साथ सूखा पाती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
कभी मिलती हूँ बहकती सी,
तो कभी किताबों पर धूल सी जम जाती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
सुबह हजारों ख्वाब लेकर उठती हूँ,
शाम को थककर तकिये के नीचे रखकर सो जाती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
फिर-फिर ना मिलने का डर सताता है,
फिर शाम के दामन से निकल आती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
हजारों जिम्मेदारियों में दबी छुपी,
रोज खुद को आधी रात में थपकियाँ देकर सुलाती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
एक अजीब सा तनाव है जिन्दगी में,
जैसे कोई साया खींचता है इधर भी, उधर भी,
और इसी कशमकश में ताउम्र जीती जाती हूँ,
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ |
रोज ढूँढती हूँ खुद को, कमबख्त रोज गुम हो जाती हूँ ||
बहुत खूब
रचना और अंदाज़- ए- बयाँ दोनों बहुत मन भाये
रचना की stanza’s में पोस्टिंग होती तो ज्यादा अच्छी लगती
रचना के लिए बहुत बधाई ,,,,
वैसे p4poetry पर भी आप ज्यादा गुम ही रहती हैं. 🙂
@Vishvnand, धन्यवाद सर | आपकी सलाह पर ध्यान दूंगी, इस सलाह के लिए भी शुक्रिया | और इतनी गुम रहती हूँ तभी तो खुद को कम्बखत कहलाती हूँ |
@kshipra786
कमबख्त नहीं कम वख्त ….
बहुत खूब. stanza को अलग करें.
@Jaspal Kaur, धन्यवाद सर
bahut khoobsoorat andaaze bayaan.
@s n singh, तारीफ का बहुत-2 शुक्रिया | अगली रचना भी पढेंगे तो मुझे ख़ुशी होगी |
शुक्रिया ,धन्यवाद सर | अलग कर दिए |
waah….bhartiya naari ka kya vastvik chitran kiya h aapne …waah shipra ji!!!