« गर मोम बनोगे तुम फिर धूप का डर होगा. | बेरंग बहारों का नगर देख रहे हैं, » |
कैसे जियें ज़िंदगी
Hindi Poetry |
जब तक ये सवाल है कैसे जियें ज़िंदगी
जवाब ही तो जाल है कैसे जियें ज़िंदगी
मुश्किलों का सामना करके ही तो जानना
जो न खून में उबाल है कैसे जियें ज़िंदगी
ज़मीर जो लगने लगा है कि जैसे लाईमान
हर आईना एक चाल है कैसे जियें ज़िंदगी
दर्द क्या हमदर्द क्या और है कौन चारागर
हराम हो चला हलाल है कैसे जियें ज़िंदगी
तुम क़ामयाब हो रहो हम हाशिए पे भी नहीं
आँख में अटका बाल है कैसे जियें ज़िंदगी
सच के बदन पे पैराहन न बच सका कभी
‘सब्र’ बहुत भेड़चाल है कैसे जियें ज़िंदगी
its great to read your poem
Loved it
Thanks Rajdeep..i am flattered to get this admiration!
वाह क्या बात है बहुत सुन्दर अंदाज़
अल्लाह ने भेजा यहाँ है जीने को हमें
ट्रेनिंग नहीं न सब्र भी कैसे जियें जिंदगी I 🙂
वक्त आयेगा जरुर एक बार सच्चे इन्सान का
तब तक चलते रहना मुसाफिर ऐसे जिए जिंदगी
रितेश भाई आपकी यह गजल पसंद आई
वाह ! लाजवाब….. मजा आ गया पढ़कर……
नंगा सच भी श्रेयस्कर है
मिथ्या से हर चंद सुघर है .
लाख पहिन लो सोना चांदी
सारा तो फबता तन पर है ,
तन सच है आभूषण झूठे
सम्जः न इंसान पता पर है .