« “काल”-(Tense) | कैसे जियें ज़िंदगी » |
गर मोम बनोगे तुम फिर धूप का डर होगा.
Hindi Poetry |
गर मोम बनोगे तुम फिर धूप का डर होगा.
ज़ुरअत की ज़रुरत है, दुश्वार सफ़र होगा
हालात मुखालिफ़ तो हर मोड़ पे आयेंगे,
डर डर के चलोगे तो मकसद न ये सर होगा.
अब जा के समझ पाए, थे भूत जुदा ढब के,
उम्मीद रहे करते बातों का असर होगा.
जिस पेड़ में ज़ालिम ने रख आग अभी दी है,
उसमे न परिंदों का क्या एक भी घर होगा.
आता है ज़माना वो कुछ हो न सिफारिश से,
पूछ होगी जब हाथों में नायाब हुनर होगा.
मायूस करेंगे सब ताज और तखत वाले,
निकलेगा मसीहा वो, जो खाक ब सर होगा.
ग़ुम चाँद सितारे हों, जब घुप्प अँधेरा हो,
दिल हार न जाना वो आगाज़े सहर होगा.
यूँ फिक्रे शहर में हैं सब क़ाज़ी हुए दुबले.
तय जानो वो दिन आया बर्बाद शहर होगा.
क्यों जाने परिंदों से है सारा फ़लक ख़ाली
क्या अबके बहारों का आना न इधर होगा. .
हमेशा एक से बढ़ के एक शेर…अच्छे, मंजे हुए हैं आप शायराना हुनर में!
आदरणीय सिद्धनाथ जी ,वाह ! वाह !
गजब के शेर हैI बधाई !!!
बहुत खूब भावनिक और अर्थपूर्ण
गावों में न गर घर हों मंत्री और अफसरों के
बिजली का वहां आना कैसे और किधर होगा …..
आपकी इस गजल में है जो है उम्दा ख्याल
सोचता हूँ ,इसका जमाने पर असर जरुर होगा