« किस दौरे दर्दनाक से यारों गुज़र रहा हूँ मैं. | जो सपना अब, कभी सच था ….! ( गीत ) » |
आँखों से गिर गया तो कहीं का नहीं रहा.
Hindi Poetry |
आँखों से गिर गया तो कहीं का नहीं रहा.
हो क़तरा अश्क का, कि कोई आदमी रहा.
मिलते ही मुफलिसी के वही शख्से बेमिसाल,
भूला है फलसफे जो बड़ा फ़लसफ़ी रहा. मुफलिसी-गरीबी,भूख फलसफा-दर्शन, फ़लसफ़ी-दार्शनिक
इससे जियादा थी न उमीदे करम हमें,
मशकूर हैं कि नाम तुम्हे याद भी रहा. करम-कृपा ,मशकूर-आभारी
ऊपर से देखने को कई रंग चढ़ गए,
ढांचा इमारतों का वही था, वही रहा.
झुलसा दिया है वक़्त की बेरहम आंच ने,
रुख्सारे पुरकशिश जो कभी गंदुमी रहा. गंदुमी-गेंहुआँ, रुखसार-कपोल,पुरकशिश-आकर्षक
जंजीरे पा न चाहे दिखाई पड़े तुम्हें,
पर मैं न क़ैद आज सा पहले कभी रहा. जंजीरे पा-पाँव की बेड़ियाँ
Rachanaa ka mool behad prasangik hai
बहुत खूब
हर शेर बहुत बढ़िया और अर्थपूर्ण
रिश्वत और घोटाले में शायद आ गया अव्वल
इस देश का नाम ऐसा न पहले कभी रहा …