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बिखरे बाल लिए बैठी तुम ….!
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बिखरे बाल लिए बैठी तुम ….!
बिखरे बाल लिए बैठी तुम,
गमगीं हो, कुछ सोच रही हो,
नहीं जानता पर लगता है,
विरह का दुःख तुम झेल रही हो !
इस नीरसता में भी तुम तो,
सुन्दर सी कविता जंचती हो,
चित्रकार मैं नहीं मगर, तुम
चित्र सी मन में उतर रही हो !
लगता अब ये कलम भी तुझपर,
कविता लिखने तरस गयी हो
और चाहती तुमसे सुनाना,
तुम्हरे मन जो बीत रही हो !
इसीलिये ये लिखकर दिल को,
दुःख सुख से नहलाया मैंने.
तुम्हे देखने का ये अनुभव
मन में यूं है संजोया मैंने !
सोंचूँ मन में है जो तुम्हारे
कभी तो तुम कह देना मुझसे
मेरा मन तो तरस गया है
सुनने तुम्हरी मन की तुमसे !
” विश्व नन्द ”
वाह..! बहुत खूब बयां किया है सरजी..! 🙂
@Amit
रचना पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़ मन प्रसन्न हो गया …हार्दिक धन्यवाद
bahut khoob, man se hi man ko raah hoti hai.yun hi convey karaah hoti hai,apni nazaren zara jhuka jaalim,dekh duniya tabaah hoti hai.
@siddhanathsingh
Many thanks for your kind comments and its contents
@Vishvnand,
Wished you sang it too, as you usually do.
Kusum
@kusumgokarn,
Will try composing a tune for the poem but it got penned as more for a straight recital.