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“महफ़िल और मुजरा”
Hindi Poetry |
“महफ़िल और मुजरा”
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हारमोनियम की सरगम के सँग,
सारंगी भी है अरु तबला है,
महफ़िल का है ये रंग ढंग,
जो नाच रही वो अबला है !
चारों ओर लगे है गद्दे सँग मसंग,
ज़ाम हाथ में लिए हैं बैठे,
उच्च कुलीन लोग उत्तंग !
नर्तकी घूमर करती करती
देती रहती है सलाम,
नोटों की वारिस होती
जो ही है उसका इनाम !
धुत्त नशे में हो जाने पर
मुश्किल से उठते दर्शक,
येन केन लड़खड़ाते उठने की,
कोशिश करते भरसक !
महफ़िल के मल्ल ही उनको
तब धकेलके बाहर करते,
बिखरे पड़े नोटों को चुगकर
नर्तकी की झोली भरते !
अनेकों महफ़िल के शौकीनों का
परिणाम होता है दिवाला,
जो बिकवा देता घरबार
पहनाके जूतों की माला !
अनेको हुए बेहाल देखकर
ऐसी महफ़िल का मुजरा,
बरबाद हुए घराने जिनका
अंत बमुश्किल गुजरा !
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रचना ने साकार है करदी
हो जैसी महफ़िल मुजरा
जिसका रोग खराब बड़ा है
समाज को हरदम खतरा
बड़े बड़ों के लिए अलग छुप
सजती महफ़िल और मुजरा
बहार पुलिस तैनात है रहती
देने लोगों पर पहरा
दुहरा मापदंड है भाई
नहीं उन्हें भय ना खतरा 🙂
@Vishvnand,सच पूछो
तो मैंने कभी महफ़िल और मुजरा की वास्तविक झलक भी नहीं देखी !
किन्तु फिल्मों में जैसा दिखाया जाता है उसके आधार पर ही
उपरोक्त रचना का प्रस्तुतीकरण संभव हो सका है ! धन्यवाद !
@ashwini kumar goswami,
जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि
यही तो इससे सिद्ध होता है
@Vishvnand, Thanks
a lot !