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खुले ही न तेरे करम के दरीचे.

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खुले ही न तेरे करम के दरीचे.
खड़े रह गए सब तलबगार नीचे.
 
ज़बीं पर रहीं दर्ज़ पुरख़ार राहें,
तुझे कैसे मिलते गुलों के गलीचे.
 
पिला कर वो लेक्चर हैं पर्यावरण पर,
गए छोड़ ढेरों धुआँ धूल पीछे.
 
तभी तक लबों पर खिली मुस्कराहट,
कि प्रेस ने न जब तक कि फोटो हैं खींचे. 
 
 उन्हें सिर्फ मतलब है फल से शजर के,
कोई रोपे, पाले कोई,कोई सींचे.
 
कहाँ कब लुटीं अस्मतें वो न जानें,
वो रहते हैं अक्सर युंही आँख मींचे.
 
 

One Comment

  1. Digvijay gupta says:

    सर ,
    ये पूरी ग़ज़ल हकीक़त बयां करती है !!!!!!!!!!!!!!

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