« »

तिरस्कार

0 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 5
Loading...
Hindi Poetry

आग की लपटों से भी गर्म यह लपटें
अंगारों से भी तेज़ झुलसती यह बस्ती
खारे आंसू भी बुझा न पाए जो अग्नि
इतनी नफ़रत बरस रही है आज दिल में सबकी|
|
तिरस्कार…
उफ़,
यह एक अकेला शब्द
कितना गहन है इसका अनुवाद
सारे प्रेम-प्यार भुला
हर रिश्ते का करता घात|

देखो चारों और—
कर्म तो करते जा रहे हैं कुछ भाग्यहीन
हथेलिओं पे दिलों को संजोए
उम्मीद भरी नज़रों को बिछाए,
जी रहे हैं फिर भी तिरस्कृत, प्रेम विहीन|

“कुछ अक्ल है की नहीं?”
“कुछ करना आता है की नहीं?”
जी जान लगा कार्य करने के बावजूद
अगर झेलेगा मनुष्य ज़हर से बुझे तीर
क्या रहेगा उसका वजूद,
कब समझेगा कोई उसकी पीड़?

5 Comments

  1. Kusum Gokarn says:

    This poem reflects the opposite thought of your other poem – Simati Dooriyan.
    Negative vs Positive attitude
    Fine expression.
    Kusum

  2. Vishvnand says:

    बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण मार्मिक रचना
    सच आज की society और व्यवस्था तिरस्कार के लायक ही बन गयी है
    गरीब नहीं

    जी जान लगा दिन भर वो मेहनत करता है
    फिर भी उसकी कमाई परिवार को दो टाइम की रोटी नही दे सकती
    उसे ऐसी दुनिया और समाज से तिरस्कार न हो तो क्या हो
    और हम हैं जो उनका तिरस्कार करते हैं खुद का नहीं….

  3. rajdeep bhattacharya says:

    agree with Kusum Ji
    Nice poem

  4. parminder says:

    Thank you all. Some people are born with bad luck, however hard they may work, somehow, good fortune still evades them. Karma, i suppose.

  5. sushil sarna says:

    गहन रचना – अपने पीछे एक प्रश्न को छोडती है-क्योँ तिरस्कार रूपी दीमक समाज को नष्ट करने का दंभ भर रही है-यही हाल रहा तो आने वाले कल का स्वरूप बहुत ही भयानक होगा-अति सुंदर रचना-बधाई

Leave a Reply