« इनको नही कुछ बस ….! | सिमटती दूरियाँ » |
तिरस्कार
Hindi Poetry |
आग की लपटों से भी गर्म यह लपटें
अंगारों से भी तेज़ झुलसती यह बस्ती
खारे आंसू भी बुझा न पाए जो अग्नि
इतनी नफ़रत बरस रही है आज दिल में सबकी|
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तिरस्कार…
उफ़,
यह एक अकेला शब्द
कितना गहन है इसका अनुवाद
सारे प्रेम-प्यार भुला
हर रिश्ते का करता घात|
देखो चारों और—
कर्म तो करते जा रहे हैं कुछ भाग्यहीन
हथेलिओं पे दिलों को संजोए
उम्मीद भरी नज़रों को बिछाए,
जी रहे हैं फिर भी तिरस्कृत, प्रेम विहीन|
“कुछ अक्ल है की नहीं?”
“कुछ करना आता है की नहीं?”
जी जान लगा कार्य करने के बावजूद
अगर झेलेगा मनुष्य ज़हर से बुझे तीर
क्या रहेगा उसका वजूद,
कब समझेगा कोई उसकी पीड़?
This poem reflects the opposite thought of your other poem – Simati Dooriyan.
Negative vs Positive attitude
Fine expression.
Kusum
बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण मार्मिक रचना
सच आज की society और व्यवस्था तिरस्कार के लायक ही बन गयी है
गरीब नहीं
जी जान लगा दिन भर वो मेहनत करता है
फिर भी उसकी कमाई परिवार को दो टाइम की रोटी नही दे सकती
उसे ऐसी दुनिया और समाज से तिरस्कार न हो तो क्या हो
और हम हैं जो उनका तिरस्कार करते हैं खुद का नहीं….
agree with Kusum Ji
Nice poem
Thank you all. Some people are born with bad luck, however hard they may work, somehow, good fortune still evades them. Karma, i suppose.
गहन रचना – अपने पीछे एक प्रश्न को छोडती है-क्योँ तिरस्कार रूपी दीमक समाज को नष्ट करने का दंभ भर रही है-यही हाल रहा तो आने वाले कल का स्वरूप बहुत ही भयानक होगा-अति सुंदर रचना-बधाई