« »

कशमकश….

0 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 5
Loading...
Uncategorized

मेरे घर में शायद कोई बस गया है,

कोई तो है, जो मुझे पहचानने से इनकार करता है,

सवाल पूछता है, कौन हूँ मैं?

मैं बताता हूँ कि ये टूटे हुए आईने के टुकड़े

असल में ख्वाब हैं मेरे,

और उधर कोने में तिरपाई पर रखा है मेरा लोटा,

अरमानों का पानी सूख गया है शायद.

वो मुझे बार बार पोती दीवारें दिखता है, खुरच खुरच कर,

मैं  ऊपर के रंग में नीचे के रंग की झलक दिखलाता  हूँ.

मैं उसे करीने से रखे ज़ज्बात दिखाता हूँ ,

वो बिखरे हुए बालों से हालात दिखाता  है.

यूँही कशमकश जारी है, हक की लड़ाई है,

न जाने चाँद चमकेगा या सांसें थमेंगी,…..  पहले.

5 Comments

  1. praveen gupta says:

    बहुत बढ़िया…..

  2. Vishvnand says:

    रचना पढ़ने में अच्छी लगी
    पर पूरी समझ के काफी परे लगी
    शायद कुछ समझाने की या खुद और समझने की जरूरत हो नही जानता

  3. vmjain says:

    कविता पसंद करने का शुक्रिया. मन में बसे अँधेरे से कुछ नाता जोड़ने की कोशिश कीजिये.

    • Vishvnand says:

      @vmjain,
      शुक्रिया आपने रचना के अँधेरे में कुछ तो प्रकाश डाला.
      शुक्रिया l. अब बात जरूर समझ में आयी l. बढ़िया ….

Leave a Reply