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कृतिकार न यदि कृति को जाने फिर और किसे हो ज्ञान सखे.
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कृतिकार न यदि कृति को जाने फिर और किसे हो ज्ञान सखे.
हम जो भी हैं जैसे भी हैं सब जान रहा भगवान् सखे.
वो सृजन करे हम ध्वंस करें किस तरह उचित होगा ऐसा,
हम चाहे जो व्यवसाय करें इतना बस रख लें ध्यान सखे.
पर्वत हो जाएँ खंड खंड, हों भस्मीभूत घने जंगल,
आगे सर्वोच्च नियंता के करना अनुचित अभिमान सखे.
वो नाटककार निराला है,भूमिका नियत हर प्राणी की,
किस राह कहाँ तक जाना है,जाने वो, हम अनजान सखे.
परितोष मिले अनुतोष मिले या दंड दुरंत मिले कोई,
सब उसका लेखा जोखा है, मुश्किल इसका अनुमान सखे.
हीला न हवाला अच्छा है,छोडो खुद को उन हाथों में,
जिसने हैं प्राण दिए हमको अब वही करेगा त्राण सखे.
जो अर्थ व्यवस्था दिखती है वो व्यर्थ व्यवस्था भर ठहरी,
जिस मुंह को जितने कौर मिलें करता है वही प्रदान सखे.
ये अहम् वहम केवल ठहरा जितनी ज़ल्दी समझो अच्छा,
साक्षात्कार में उससे बस यह है व्यतिक्रम व्यवधान सखे.
अच्छी कविता: हिंदी का अच्छा इस्तेमाल किया गया है.
@U.M.Sahai, dhanyvad sir.
अति सुन्दर
“जो अर्थ व्यवस्था दिखती है वो व्यर्थ व्यवस्था भर ठहरी,
जिस मुंह को जितने कौर मिलें करता है वही प्रदान सखे.”
पढ़कर रचना क्यूँ मन आया लिखा है जिसे वो कौन सखे
“सुन या पढ़कर” जो समझ सके ऐसी तो नही वो आज सखे 🙂
@Vishvnand, sakha to saath khaye vahee ho sakta hai kyon?
इस सुन्दर रचना का हम क्या नाम रखे
इसे गजल कहे या गीतिका का स्वाद चखे
@rajendra sharma ‘vivek’, nischaya hi gazal nahin hai;dhanyavad
Sundar rachana sir ji
@Abhishek Khare, dhanyavad abhishek ji
Very nice poem sir.
@sonal, shukriya Sonal