« »

‘ पतझड़ ‘

0 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 50 votes, average: 0.00 out of 5
Loading...
Hindi Poetry, Jun 2012 Contest

‘ पतझड़ ‘

पतझड़ के मौसम में ,
तेज़ हवा के झोंकों से ,
वृक्ष से पत्ते छूट जाते हैं ,
गिरते है वो धरा पे ,
अपनी ही शाख से टूट जाते हैं !
अपनी पहचान खोकर ,
लाचार और बेबस होकर ,
वीरान कर देते है उस वृक्ष को ,
और खुद मिट्टी में मिल जाते हैं !
पीले पत्ते पहचान खोकर भी ,
खाद बन वृक्ष को बढ़ाते हैं ,
एक बार फिर नवकोंपलों से ,
वृक्ष को हरा-भरा बनाते हैं !
जीवन में भी कई मौसम आते हैं ,
कभी पतझड़ तो कभी बसंत आते हैं ,
फिर भी कभी जीवन रुकता नहीं ,
तूफान के बाद भी कश्ती को
किनारे मिल जाते हैं !
जीवन का भी यही नियम है ,
विनाश के बाद
सृजन के रास्ते खुल जाते हैं !

– सोनल पंवार

2 Comments

  1. s n singh says:

    satya kathan hai.

Leave a Reply