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महफ़िल में तेरी खुद को पा कर शर्मिंदा शकील…………
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वक़्त की चादर से निकले हैं बहार रात के पांव
देखें सुबह तक कहाँ पहुंचें मेरे हालात के पांव
दश्त दश्त सहरा सहरा भटकें हैं एक उम्र दोनों
दो घडी बैठा तो दुखते हैं मेरे जज़्बात के पांव
बरसना कहाँ था बारिशें ये कहाँ हो गईं आखिर
याद आये किसी के हसीं देखकर बरसात के पांव
याद आये किसी के हसीं देखकर बरसात के पांव
महफ़िल में तेरी खुद को पा कर शर्मिंदा शकील
न आते कभी इधर जो होते मेरे ख्यालात के पांव
वाह वाह बहुत खूब और मन भावन शकील जी
बढ़िया लगते हर शेर जिस अंदाज़ में पड़ते आपके पाँव
Sundar…
दश्त दश्त सहरा सहरा भटकें हैं एक उम्र दोनों
दो घडी बैठा तो दुखते हैं मेरे जज़्बात के पांव
अति उत्तम |
भाई वाह! क्या बात है…बहुत खूब….