« पैसे पेड़ों पर नहीं लगते – एक स्वप्न | दामन में तीरगी के,पैबंद रौशनी के. » |
मेला देखो ये नारों का
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मेला देखो ये नारों का
कुर्सी के दावेदारों का.
दुग्ध धवल थे सबके कपडे
करते जो निशिदिन थे लफड़े
सबसे लम्बी थी वो दुकान
बेचा जिसने सारा ईमान.
सत्ता लोलुप सियारों का.
मेला देखो ये नारों का
बड़े मशहूर भिखमंगे हैं
राज की दौड़ में नंगे हैं
खाने पीने में चंगे हैं.
वोट के नाम पर दंगे हैं.
सेवा के साथ डकारों का.
मेला देखो ये नारों का
एक जाति में तौल रहा था
फिर सीमा विष घोल रहा था
दूजा धर्म पर बोल रहा था
तीजा वोट टटोल रहा था
धर्म कर्म के व्यापारों का.
मेला देखो ये नारों का
वादों के हैं बोर्ड निराले
न कुछ करने धरने वाले,
ऊपर उजले भीतर काले
बस कुर्सी को वरने वाले
लोकतंत्री ठेकेदारों का.
मेला देखो ये नारों का
बड़ी बड़ी तो बस बातें हैं
बिन मेल की मुलाकातें हैं
अंदर बाहर सब घातें हैं
सांसद भी बिकते पाते हैं
काले धन की बौछारों का
मेला देखो ये नारों का .
अब बदले असूल पुराने हैं
जन सेवा के तो बहाने हैं.
सब कुर्सी के दीवाने हैं.
बाकी के सब बेगाने हैं
गठबंधन और दरारों का
मेला देखो ये नारों का .
बेच दिया है माँ का आँचल
क्या कश्मीर क्या गंगाजल
बेचा है लोगों का विश्वास
कैसे रखें हम इनसे आस
जमघट है ये गद्दारों का.
मेला देखो ये नारों का .
—-मनोज भारत
bahut khoob,akbar illahabaadi kee shaili kee rachna,mujhe unki ye lines yaad aa gayi,-
mahfil unki, saaqee unka
aankhen apni, baaqee unka.
@SN,
सादर धन्यवाद .
बहुत खूबसूरत अर्थपूर्ण मार्मिक प्रभावी रचना
बहुत मन भायी, हार्दिक अभिवादन
“मेला देख लिया नारों का
ये भ्रष्ट हैं बढी भ्रष्टता
इनपर असर नहीं बातों का
दौर शुरू होगा लातों का ….”
@Vishvnand, धन्यवाद
बहुत बढ़िया
बहुत बढ़िया!
आप सभी की प्रतिक्रियाओं के लिए सहृदय धन्यवाद.