« बढ़ा ही नहीं दायरा दोस्तों का. | TRANSIT LOUNGE » |
बुझती है शमा, अब तो आ जाय सहर ,या रब.
Uncategorized |
बुझती है शमा, अब तो आ जाय सहर ,या रब.
किस ठौर गया लश्कर सूरज का ठहर या रब.
डरता हूँ अँधेरा ये बस जाय न रूहों में,
शंकर के गले में है जैसे कि ज़हर या रब.
बेसिम्त सफ़र अपना, पहचान न मंजिल की,
रहबर न सितारे भी, अब जांय किधर या रब. बेसिम्त-दिश्विहीन
गीली है अभी मिट्टी, गढ़ जैसे भी गढ़ना हो,
बदशक्ल बना या फिर दे रूप सुघर या रब.
बंदा हूँ न जानूं मैं ढब तेरी परस्तिश के,
धर दर पे दिया तेरे मैंने तो ये सर या रब. परस्तिश-अर्चना
सीपी में ज़माने की हूँ क़ैद मैं मुद्दत से,
हो जाय करम तेरा बन जाऊं गुहर या रब. गुहर-मोती