« नन्हे दीये | A ray.. » |
तना तराश के जिसको शहर ने मारा था
Uncategorized |
तना तराश के जिसको शहर ने मारा था
उसी शजर पे बना आशियाँ हमारा था। शजर-पेड़
तमाम उम्र रहा खेलता मैं बिन सोचे
कि दांव कौन था जीता औ’कौन हारा था।
सफ़र पे आये निकल जिसके थे भरोसे हम,
पता नहीं था कि वो डूबता सितारा था।
उसी पे आके हुईं गर्क़ किश्तियाँ कितनी,
कि रहबरों ने बताया जिसे किनारा था। गर्क-डूबना
वो जिसको मान के बैठे थे सख्त पत्थर हम,
खुला ये राज़ वो अन्दर से मोम सारा था।
वो होशियार था ताजिर तिजारते दिल का,
नफ़ा तमाम था उसका मेरा खसारा था।खसारा-हानि,नफ़ा-लाभ
उसी के साथ शहर दर शहर चले आखिर,
न एक नज़र भी जिसे देखना गवारा था।
वो जिससे हम थे रहे सारी रात खौफ़ज़दा ,
खुली जो धूप ,तो पाया, महज़ गुबारा था।
सितम तो देख, रही आँख मुन्तजिर जिसकी,
वो आया कल, तो लिए गैर का सहारा था।
वरक वरक पे, खुली जब किताबे दिल, देखा-
तेरे सितम का रक़म सिर्फ गोशवारा था। वरक़ -पृष्ठ,गोषवारा-हिसाब,balancesheet
वो आबशार था हुस्नो जमाल का जैसे
हरेक नज़र के लिए दीदनीं नज़ारा था। आबशार-झरना दीदनीं -देखने योग्य