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कैसे मुमकिन है !
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कैसे मुमकिन है कि रोक सकूँ उन फिज़ाओं को खुद तक आने से ,
जो तुझे छू कर गुजरती हैं….
कैसे रोक सकूँ रोशनी के उस गुबार को
जिससे मै भी रोशन हूँ और तू भी रोशन है ……
कैसे कह दूँ कि दूर रहे मुझसे हर वो ज़र्रा
जिसमे हम दोनों शामिल हैं …..
मुमकिन है……..
कि रोक लूँ खुद को
कर लूँ एक गुमनाम चार दीवारी में
अँधेरे का दामन थामे, सन्नाटे कि गोद में
जहां फिजाओं का वजूद ना हो और जहां
मै और मेरा हर ज़र्रा मिल रहा हो इस मिटटी से |
बहुत दोनों बाद श्री अमित जी की एक गंभीर रचना पढ़ने को मिली.
बहुत अच्छी लगी .
@हरीश जी : अमित नहीं अनुज की 🙂
बिलकुल सही कहा अनुज जी 🙂 लगता है बुढापा दस्तक देने लगा है 🙂
kar lun ek gumanam chardeevari me is pankti me shayad kar lun aur ek ke beech aap qaid likhna bhool gaye.
रौशनी को, फ़िज़ाओं को, क्यों अनुज इलज़ाम देते हो,
ज़र्रे का, तो सच में, काम ही है, मिट जाना,
मिटाना है जो ग़र तुमको, मिटा अँधेरे, सन्नाटे को,
ज़रा दमन बड़ा, दिल से, बहारें, फिर भी आयेंगी.
Good Luck.
SS Kumar
kumarshamsunder@gmail.com
Kindly read DAMAN AS DAAMAN