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उड़ेंगे यों अगर खोले गगन में जलेंगे पंख सूरज की अगन में।
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उड़ेंगे यों अगर खोले गगन में
जलेंगे पंख सूरज की अगन में।
फ़क़त कपड़ों की मांगें खैरियत क्या,
न चमड़ी तक बचेगी फिर बदन में।
गुमां था ये कि संजीदा सिफत हैं,
जो आलिम जुट रहे हैं अंजुमन में,
बहस बस दूरदर्शन पर रही हो,
रहा कुछ और ही हो अब सदन में।
सड़क पर घूमते वहशी दरिन्दे ,
शहर परिणत हुआ घनघोर वन में,
हिरन खरगोश सब जाएँ कहाँ अब,
मचाते शेर घूमें शोर वन में।
बहस जुमला ब जुमला चल रही है,
बड़े हैं पेंच कानूनी कथन में,
मुकदमे सालहा सालों चलेंगे,
अदालत है दबी इनके वज़न में।
तुला था मारने पर कंस जिसको,
बचा था वो,मरे थे कंस जनमें ,
मगर अब वक़्त के आसार बदले
हैं जिंदा कंस अब सबके ज़हन में।
जो पब्लिक मांगती सड़कों पे आके,
वो बाधक बात सत्ता संतुलन में,
न सस्ती इस कदर कुर्सी की कीमत,
कि मांगें वो औ’ हम दें छोड़ क्षण में।
हुई निर्लज्ज है सत्ता निहायत,
वो रहती मस्त अपनी ही टशन में,
दमन का दंभमय होगा प्रवर्तन,
जमे जब तक न सबके खौफ मन में।
बहुत सही कहा आपने !!
समसामयिक रचना हेतु बधाई !!
dhanyavad.
SN ji, bahut achha likha hai apne..aap is ke liye badhai ke patra hain..jahan ek ore is ghatna ne sabko hila diya hai..wahi hamari swayam par ati garv karti sanskriti aur sabhyata par prashn chinha laga diya hai..sochna hoga ki kya sabhyata aur sanskriti sirf kuch paramparaon aur riti riwazo ke nirvahan me he hai?
aap ko vichar karne aur udgar vyakt karne ke liye udyat kiya meri rachna ne ye mere liye garv ki baat hai.