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निर्झरिणी सी बहे तुम्हारी रूप सुधा भींगे तन मन ,
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निर्झरिणी सी बहे तुम्हारी रूप सुधा भींगे तन मन ,
वह अनुराग भरे जीवन में जो न घटे यावज्जीवन I
प्रणय पराग सिक्त कलिका सी तुम मुकुलित मन के आँगन।
सुध बुध मदिर सुगंध निमज्जित हो मेरी चन्दन चन्दन।
सुतनु अधर अरुणिम ऊषा सम भ्रू क्षितिजों पर उदित निहार,
ह्रदय विहग कल्लोल करे, लख चहक पड़े धड़कन धड़कन।
नमित नयन सम्मोहन रच दें यूँ कि चेतना खो जाये ,
बंकिम दृष्टि सृष्टि करती है जादू सा अप्रतिम तत्क्षण।
कुंकुम चर्चित चरण चपल ये हरण करें हृद हरिण समान,
चाल चंचला और चढ़ाये अंतस पर आवारापन I
यौवन भारिल नत वदना तुम मदन मोहिनी सी साक्षात,
निरख लुनाई कौन रहेगा सुभगे उदासीन उन्मन।
मुक्त चिकुर बिखरें घन से जब मनस्प्रान्त में हो सावन ,
आँचल लहराती जब बाहें विवश बहें उनचास पवन।
बहुत सुन्दर रचना …सिंह साहब
dhanyavad Narayan Singh ji
वाह क्या बात है
बहुत सुन्दर अनन्य शब्दावली में परिपूर्ण श्रृंगाररस
बहुत मन भाया
हार्दिक बधाई
उत्कृष्ट रचना |
प्रत्ये पंक्ति पर लाखों बधाई |
प्रत्येक पंक्ति पर लाखों बधाई |
sudhee pathakgan ka aabhaar.