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अबला नहीं मैं (नारी )
Hindi Poetry |
अबला नहीं मैं , कठपुतली नहीं मैं ,कमजोर नहीं,
हां मैं हुं आज भी वही भारतीय सशक्त नारी .
जुल्मों सितम का होना मुझपर ,यह कोई नई बात नहीं ,
बरसों पुरानी चली आ रही रीत है यह कोई नई बात नहीं .
ऋग्वेद में कहा स्त्री को ‘ब्रम्हा ‘,
अथर्व वेद में कुलरक्षक ,बनी वह ‘कुलपा ‘.
यजुर्वेद में उपाधि ईंट की ,बनी जहां वह इष्टा ,
ऊंचा नाम ,ऊंचा स्थान सभी वेदों ने उसे दिया
क्योंकि अबला नहीं मैं , …………………………..
उन महाकवियों से मुझे है शिकवा ,
जिन्होंने असहाय और अबला नाम दिया .
निंदा करने में न रहे पीछे देश के नामी महारथी ,
अधम ,तुच्छ ,अवगुणों की खान कहा जिसने
थे वह तुलसीदास जी .
पर नारी से ही हुई थी उनकी भी तो उत्त्पत्ति .
शंकराचार्य की खातिर नर्क का द्वार थी नारी ,
मध्यकाल में मध्यम हो गयी थी नारी की भी स्थिति ,
नया दौर लेकर आये जब महर्षी द्यानंद सरस्वती ,
मान दिया ऊंचा स्थान दिया ,स्त्री शिक्षण देकर दिखाई नई दिशा .
अबला नहीं मैं ,………………………….
भुल गया यह समाज कैसे मरदानी वह झांसी की ,
पति ओर बच्चा खोकर भी अंग्रेजों से जा भिड़ी .
था समाज खिलाफ उस देवी के तब भी ,
सबकुछ गंवाकर भी न डगमगाई उनकी मानसिक स्थिति .
अबला नहीं मैं , कठपुतली नहीं मैं ,कमजोर नहीं,
हां मैं हुं आज भी वही भारतीय सशक्त नारी .
भूल गये कैसे सभी कथा वह पद्मिनी की ,
हुआ था मोहित उसपर जब अलाउददीन खिलजी ,
अक्स उनका देखते ही ,उन्हें पाने की इच्छा रखी .
निकट आने के पहले ही कर लिया उस नारी ने आत्मदाह
विरोध में उसके ,जल गईं उनसंग औरतें हजार ,
अबला नहीं मैं , कठपुतली नहीं मैं ,कमजोर नहीं,
हां मैं हुं आज भी वही भारतीय सशक्त नारी .
सदियां बीती युग बीता ,बदल गया संसार भी ,
पर नारी को प्रताड़ने की न बदली वः कुप्रथा पुरानी .
बंद दरवाजे हों या खुली सड़क पर ,
क्यों सहने लगी वह बनकर बेचारी ,
बनाकर मिसालें उन सशक्त नारियों को ,
हाथ उठाकर ,कदम बढ़ाकर ,क्यों न रोका बढ़ते अत्याचार को ,
संघर्ष की फिर वही कहानी ,फिर से पड़ेगी हमें दोहरानी .
अबला नहीं मैं , …………………………..
जमाना जा पहुंचा हो भले ही चांद पर ,
संघर्षों से अपने जूझ रही वह आज भी इसी पृथ्वी पर .
आज भी कहीं मारी जा रही है अजन्मी बेटी ,
आज भी कहीं दहेज की खातिर बहु है जली ,
आज भी कहीं बहन ,बेटियों संग हई है छेड़खानी .
परंतु अबला नहीं मैं , …………………………..
जीवउत्त्पत्ति की जिम्मेदारी उठाई इसी नारी ने ,
गर न होती वह ,तो न होते तुम और न होती मै .
जीवनदायनी माँ है वही इस संसार की ,
एक पत्नी ,बहन ,बेटी और माँ जो है बनकर आई .
मैं न कहुंगी झुककर करो नतमस्तक उन्हें ,
वह केवल पूजनीय पात्र नहीं .
क्योंकि अबला नहीं मैं , …………………………..
कभी लक्ष्मी कहकर पूजा ,
कभी कुल्क्ष्मी कहकर ढकेल दिया .
अब और नहीं ,खत्म हुई सहनशक्ति की सीमा ,
हक है मुझे भी खुलकर जीने का,
हक है मुझे भी मार्गप्रशस्त करने का .
अबला नहीं मैं , …………………………..
इक्कीसवी सदी की हुं ,मैं आधुनिक नारी ,
बहुत हुआ सितम अब न सहुंगी मनमानी .
इन बढ़ते अत्याचारों से ,बरसों पुरानी कुप्रथाओं से,
लोहा लेने की अब मैने है ठानी ,
हां मै हुं वही लक्ष्मीबाई ,वही पद्मिनी ,वही सावित्री ,
वही मैं काली, वही हुं मैं दुर्गा …….पर नहीं मैं अबला .
क्योंकि अबला नहीं मैं , कठपुतली नहीं मैं ,कमजोर नहीं,
हां मैं हुं आज भी वही भारतीय सशक्त नारी .
……………………………….राजश्री राजभर
very moving poem
thanx alot sir,
this was the winning poem in poetry competition held at dadar.
Vaah vaah
Vishay par bahut hii badhiyaa arthpoorn or maarmik
Ati Sundar tathaa prashansaneey
hardik badhaaii
Please keep it up
thanks alot sir for ur best comment.
Very strong and meaningful! “Abla” word should have never been invented!
thank u so much mam for ur best comment,