ख़ुदा हाफिज शकील…..
याद है जब तुम जा रही थी तुमने कहा था
ख़ुदा हाफिज शकील।
मैं तेरी आवाज़ का वो एक टुकड़ा चुरा लाया था
उसके रेशे से कई अलफ़ाज़ बना लिए हैं मैंने
सलाम करूँ तो जवाब भी देने लगी है
सुबह जब खिड़की से आवाजों का शोर सुनाई दे
आकर मेरे नजदीक बैठ जाती है
उसकी सरगोशियों से जागता हूँ मैं
कभी जब देर रात को घर आता हूँ
दरवाज़े की दूसरी तरफ से तेरी आवाज़ आती है
वक़्त हो गया आपके घर आने का
जाइये वही रहिये कौन है आपका यहाँ
मैं नज़र बचाते हुए चाबियाँ रखता हूँ
और कहता हूँ क्यों जगती रहती हो तुम
सो जाया करो
फिर उसी अंदाज़ से लड़ा करती है जैसे
पहले तुम लड़ा करती थी
और जब थक जाये तो मेरे सिरहाने कहीं गुम
हो जाया करती है
मैं भी पलकों पर नींद के क़दमों के निशाँ
ढूंढते ढूंढते सुबह तक चला जाता हूँ।
कल रात मगर तेरी आवाज़ का वो टुकड़ा
भी टूटकर गिरा और बिखर गया
उसके एक टुकड़े से मैंने हाथ की एक
रग काट ली
खून निकला था और फर्श पर बिखरा था
मैं बहुत खुश हुआ था ये जान कर की
मैं जिंदा था
बिछड़कर वरना मैं तुझसे खुद को एक उम्र मुर्दा
समझता रहा
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Waah…
wah ustaad wah
loved it