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“धरा”
Hindi Poetry |
“धरा”
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हे वसुधा, हे वसुंधरा, तू धरती, तू ही धरणी,
अटल है तेरा नियम कि जैसी करणी वैसी भरणी l
तू ही प्रकृति की सबसे प्यारी सुता है एकाकी,
सहयोगी हैं ये तेरे सब सूर्यवंशी गृह बाकी l
जलथलनदपर्वत संगसंग खेतों की शोभा सदाबहार,
है कितना अनमोल ये तेरा इंद्रधनुष का स्वर्णिम हार !
हिमगिरि अरु जलनिधि से रक्षित तेरा देह सुखद है सदा,
आंधी-तूफानों से चाहे तू चोटिल होती है यदा-कदा l
नवग्रहों में बस तू ही पालक-पोषक निपट है एकाकी,
सहयोगी सब हैं तेरे ये अन्य अष्टग्रह बाकी l
सारे ही देवगण-ऋषिगण, मंदिर, मस्जिद गुरुद्वारे,
भक्तों के, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खुले-सजे सारे !
उपयोगी, अनमोल रत्न-आभूषण हैं तेरी झोली में,
स्वर्ण, रजत, हीरे-मोती, माणिक्य कहाते बोली में l
तू ही तो जनगण अरु सुरगण की पूज्य धरा एकाकी,
न ही किसी की मामी-चाची तू न ही किसी कि काकी !
हे वसुधा, हे वसुंधरा, तू प्रकृति की लल्ल लाडली पुतरी,
गंगायमुनासरस्वती सी नदियां तेरे यहाँ ही उतरीं l
यत्रतत्र ये नदियां बहती हैं कर देती हैं हरियाली,
उद्यानों-खेतों से तब चहुंओर हैं होती खुशहाली L
खाद्य-अनाज के संगसंग तब हम पाते हैं फलफूल,
मानव, पशु-पक्षी आदि तभी रहपाते प्रकृति के अनुकूल !
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रचनाकार:
अश्विनी कुमार गोस्वामी/११-२-२०१४,
ए-७६, विजयनगर, करतारपुरा,
जयपुर l