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दर्प न अच्छा , बोला दर्पन !

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Hindi Poetry

दर्प न अच्छा , बोला दर्पन !
काया पर मगरूर न हो मन।

काया फ़क़त मुजस्सिम माया
रूप एक सा कब रह पाया
पड़ी न किस पर कालच्छाया
सिकता छवि क्षण भंगुर भाई
मिटनी, तेज़ हवा जो आयी,
क्या होगा अपवाद तेरा तन !

बड़े बड़े दुर्दांत धुरंधर
दुर्योधन हो या दशकन्धर
बचा कौन इस काल कठिन से
क्षीयमान,जन्मे जिस दिन से,
है मृगया रत समय अहेरी
क्या औक़ात तेरी या मेरी –
करना है एक रोज़ समर्पण !

चित्त वृत्त विस्तार ज़रूरी
सत चित का अभिसार ज़रूरी
राग द्वेष विष वलय सरीखे
है इनसे उद्धार ज़रूरी,
अपितु आत्मा चढ़ा निहाई
ठोंक पीट कर बढ़ा लुनाई
खुले ज्ञान का तब वातायन !

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