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“भूख”
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लगती है मुझे भी…लगती है उसे भी…
फिर भी वो भूख इस भूख से अलग सी क्यूँ है?
हमें है पैसों की…उसे है रोटी की…
फिर दोनों ही भूखे क्यूँ हैं?
पापों का हिसाब ज़रा बता दे कोई…
फ़ाइनान्शियल इयर एण्ड हो गया…
अब तो बेलेंसे शीट बना दे कोई…
पप्पू हुआ फ़ेल…उसका बैंड बज गया…
सुना है उसके मम्मी-पापा को…
नंबरों की कुछ ज़्यादा ही भूख थी…
लेकिन जबसे लटका है पप्पू पंखे से…
उनकी तो सारी भूख ही मर गई…
तू भी है चुप…मैं भी हूँ चुप…
पता नहीं सारे चुप-चुप क्यूँ हैं?
अंदर उबलते…उफनते…खौलते…
जज़्बातों का तूफ़ान छुपाए…
चले जा रहे सभी पता नहीं कहाँ?
कोई क्यूँ ना अपने पंख फैलाए…
उड़ान भरने को?
सभी चले जा रहे हैं ऐसे…
जैसे जा रहे हों मरने को…
सपनों की सुहानी ठंडी हवा…
क्यूँ बन जाती हैं आँधी?
किसी को याद नहीं जो चलाते थे चरखा…
याद हैं सभी को नोटों पे छपे गाँधी…
निकालो समय अपनों को दो-चार पल दे दो…
भागदौड़ की इंतेहा हो गई…
रुको…
बैठो…
ज़रा साँस तो ले लो…
-प्रवीण
bahut khoob
Thanks a lot sir… 🙂
Very relevant, Praveen and well written !
Thank you Renu ji… 🙂
Jo saval man ko pareshan karte hain…kuch is tarah abhivyakt ho jate hain… 🙂
bhookh alg si kiyo hai ,achchi kavta hai badhai
Prashansa evam utsahvardhan k liye dhanyavad Kamlesh ji… 🙂