« वो रात हसीं होगी…… | चलो चेहरा बदल कर देखते हैं » |
कैसे सुलझे उलझन मेरी ….!
Hindi Poetry |
कैसे सुलझे उलझन मेरी …. !
कितनी बातें कहना चाहूँ, किसी को सुनने वख्त नहीं …..
बहुतेरे जो बताना चाहें, सुनूं मैं क्यूँ मुझे समय नहीं …।
विषय जो उनको है बहु भायें, मुझे तो वो कुछ भाते नहीं….
जिन विषयों मे रूचि है मेरी, वो हैं उनके विषय नहीं …।
इस उलझन मे फंसा हुआ था, करूँ मैं क्या कुछ सूझे नहीं
कैसे सुलझे उलझन मेरी, दिल को था आराम नहीं …!
मिल गया रास्ता अजब अचानक, मिला खुशी का ये वरदान …..
सोच सोच जब समझ ये आया, मुझको क्या अब करना काम …।
जो जो कहना अब लिखता हूँ, जो जो सुनना अब पढ़ता हूँ …..
गाना चाहूँ गीत मैं रचता, सुनना चाहूँ गीत वो सुनता …।
भाषा के जूनून का जो वर, इसी खुशी में हरदम रहता …
औरों का मैं वख्त न खाता मन लिखने पढ़ने में रमता …।
सुने न कोई कुछ भी मेरी, इससे ना अब फर्क है पड़ता
जो मैं चाहूँ खुश हो पढ़ता, और जो कहना खुश हो लिखता ….!
यूं मन तृप्त सा हरदम रहता, जीवन प्रभु वरदान समझता
कहना चाहे और बहुत कुछ, जल्दी क्या है? दिल समझाता …!
“विश्वनंद “
You have put across your thoughts about a poet being not understood or misunderstod by your readers.
One writes basically to give expression and vent to one’s own thoughts and feelings.
Whether they reach and are understood by the readers is one’s good or bad luck.
Best wishes,
Kusum