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पापा ! …..

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पापा ! …..

पापा ! आपने मुझे
जहां में क्यों आने दिया
फैंक दिया होता
किसी झाडी के पीछे
या आने से पहले मेरा अस्तित्व
मिटा दिया होता
कम से कम बेटी शब्द
इतना लज्जित तो न हुआ होता
अपनेपन की चादर में
इस शब्द का चीर हरण तो न हुआ होता
आशीर्वाद वाले हाथ भी
विशवास के लायक नहीं रहे
हर निगाह शालीनता की
छज्जियां उड़ाती नज़र आती है
पापा ! क्या बेटी के भाग्य में यही बदा है
विधाता की सर्वोत्तम कृति का ऐसा उपहास
हर क्षण बेटी शब्द की गरिमा को
लज्जित करता है
मैं उस लम्हे तक स्वयं को
किसी अँधेरे कोने में ग़ुम कर देना चाहती हूँ
जब तक हर निगाह में
बेटियां महफूज़ नहीं हो जाती
बेटी में निहित रिश्ते अपना मान नहीं पा जाते
और बेटी शब्द अपने अस्तित्व की गरिमा को
जी नहीं लेता
तब तक पापा
मैं स्वयं में
कहीं खो जाना जाती हूँ
सामाजिक चेतना के प्रकाश आने तलक
मैं आपकी गोद में सो जाना चाहती हूँ ,सो जाना चाहती हूँ …….

सुशील सरना

One Comment

  1. Dr. Paliwal says:

    Bahut hi sundar sirji….

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